विद्यार्थी का कर्तव्य

काक चेष्टा वकोध्यानम् श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्ष्णम्।।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः
उपर्युक्त पहला श्लोक विद्यार्थियों के लक्षण के सन्दर्भ में है कि विद्यार्थी की ज्ञान प्राप्ति की चेष्टा कौआ की तरह, ध्यान बगुले की तरह, नींद श्वान यानी कुत्ते की तरह, भोजन आवश्यकतानुसार अल्पहारी और उसे घर-त्यागी होना चाहिए और दूसरा श्लोक सभी पर समान रूप से लागू होता है जिसमें विद्यार्थी भी शामिल हैं। दूसरे श्लोक का मतलब है कि काई भी काम कड़ी मेहनत से ही पूरा होता है सिर्फ सोचने या इच्छा करने से नहीं जैसे सोते हुए शेर के मुँह में हिरण खुद नही आ जाता है।
वर्तमान समय टेक्नोलाॅजी का युग है और विद्यार्थियों का दिगभ्रमित एवं उनकी शिक्षा में व्यवधान डालने के लिए विभिन्न साधन जैसे फेसबुक, व्हाट््सप, वीडियो गेम, आनलाइन गेम एवं अन्य बहुत सी आनलाइन साइट उपलब्ध है और यदि विद्यार्थी थोड़ा सा भी असावधानी करता है तो उसका नुकसान होने लगता है और उसे आभास भी नही होता है। इस तरह की साइट का उपयोग अपनी पढ़ाई को उत्कृष्ट करने के लिए करना चाहिए तभी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
पण्डित श्री राम शर्मा, युग निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित पुस्तिका के कुछ अंश विद्यार्थियों के सुलभ सन्दर्भ हेतु निम्न वर्णित है जो बहुत ही उपयोगी है और विद्यार्थियों को इन बातों का गंभीरता से विचार करना चाहिए
प्रत्येक छात्र को यह अनुभव करना चाहिए कि वह एक ऐसी अवधि में होकर गुजर रहा है, जो उसके भाग्य और भविष्य निर्माण करने की निर्णायक भूमिका अदा करेगी। व्यक्ति की सारी गरिमा उसके गुण-कर्म-स्वभाव पर निर्भर है। क्या ब्रह्य क्या आंतरिक दोनों ही क्षेत्रों की प्रगति इस बात पर निर्भर है कि किसी का व्यक्तित्व किस स्तर का है। धन, विद्या, सम्मान, पद, स्वास्थ्य, मित्रता सिर्फ उन्हीं को मिलती है, जिन्होंने अपना व्यक्तित्व, गुण, कर्म, स्वभाव सही ढंग से ढाला और विनिर्मित किया है।
इन्हीं दिनों श्रेष्ठ विचार, सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों का अभ्यास किया जाता रहे तो उसका प्रभाव जीवनभर बना रहता है और सुख-शांति की संभावनाएं साकार होती हैं। इन्हीं दिनों में जोश अधिक, होश कम रहने के कारण अवांछनीय प्रवृत्तियों में अधिक आकर्षण-मनोरंजन महसूस होता है और मनोवृत्तियाँ पानी की तरह नीचे की ओर शीघ्र ही गिर जाती हैं और जीवनभर पीछा नहीं छोड़तीं। कहना न होगा कि ऐसा व्यक्ति शोक-संताप भरी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता हुआ अभिशाप जैसा नारकीय जीवन जीता है।
इन्हीं दिनों मित्रों का आकर्षण अपनी चरमसीमा पर रहता है। अच्छे साथी मिले तो विकास एवं प्रसन्नता की वृद्धि में सहायता ही मिलती है। हर समझदार छात्र का कर्तव्य है कि मित्रता से पूर्व हजार बार सोचे । कहीं मित्रता के बहाने उसे आवारागर्दी की ओर तो घसीटा नहीं जा रहा है, जिससे वे शिक्षा से वंचित रह जाएं, स्वास्थ्य खो दें, स्वभाव बिगाड़ लें और सम्मान तथा विश्वास गँवा बैठें। कुसंग से बहुत सावधान रहें। सच्चरित्र मित्रों, श्रेष्ठ पुस्तकों और सर्वशक्तिमान परमात्माा का ही संग करें। सद्विचारों की नोटबुक बनायें। समय-समय पर दोहराएँ। आदर्श व्यक्तियों का, महापुरूषों का ध्यान व उनके चरित्र का चिंतन-मनन करें।
स्वास्थ्य संरक्षण के लिए यही समय सबसे अधिक उपयुक्त है। प्राकृतिक नियमों, आहार-विहार, सोन-जागने आदि का यदि ठीक ध्यान रखा जाए तो तंदुरूस्ती ऐसी बन जाएगी जो जीवनभर साथ दे। स्वास्थ्य जीवन की सबसे पहली आवश्यकता है। एएक स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन का आनंद ले सकता है, त्याग, तपस्या, मेहनत कर सकता है। इन दिनों ब्रह्यचर्य और सद्विचारों के बारे में पूरी सतर्कता रखी जाए और अश्लील परिस्थिति से ऐसे बचा जाए जैसे साँप, बिच्छू, आग, जहर से बचा जाता है। गंदी फिल्म,गन्दे गाने, गन्दे उपन्यास, गन्दे चित्र,गन्दे विचार घिनौने कार्यों की प्रेरणा देते हैं तथा शरीर और मस्तिष्क को खोखला कर देते हैं।
साहस अच्छा गुण है। अनीति का प्रतिरोध करने की हिम्मत भी होनी चाहिए। सृजन और विकास की संभावनाएँ सज्जनोचित प्रवृत्तियों में सन्निहित हैं। अवज्ञा, उच्छृंखलता, अशिष्टता, अनुशासनहीनता, मर्यादाओं एवं नागरिक कत्र्तव्यों का उल्लंघन साहसिकता की भयंकर विकृतियाँ हैं, जिससे दूसरो को चोट तो पहुंचती ही है, अपना स्वभाव भी निकृष्ट बन जाता है।
अधिकतर अकुशल छात्र ही अनुशासनहीन हुआ करते हैं। पढ़ने-लिखने में उनका मन नहीं लगता। अच्छे विद्यार्थी के लक्षणों से रहित होने से गुरूजनों के प्रति श्रद्धा नहीं होती। श्रेणी, श्रेय अथवा सराहना के योग्य नहीं होता। इसी प्रकार की मानसिक शून्यताओं से जन्मी हीनभावना को दबाने के लिए अकुशल एवं अयोग्य छात्र अनुशासनहीनता को शान समझने लगते हैं। ऐसे विद्यार्थी विद्या प्राप्त करने के लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढने नहीं आते, बल्कि काॅलेज जीवन की फैशन-परस्ती में अपना जीवन तथा अभिभावकों का पैसा बरबाद करने के लिए आया करते हैं। जिन विद्यार्थियों के लक्षण पढ़ने के होते हैं, वे पढ़ाई के सिवाय बेकार की खुराफातों में नही पड़ते।
आत्मनिर्भरता, दूसरों की सहायता, धर्म का सदुपयोग, समय का सुनियोजन एवं सदुपयोग, मानसिक संतुलन,सत्साहित्य का स्वाध्याय, कठिन परिश्रम, दृढ़ संकल्प, स्वच्छता, सुव्यवस्था, सुसंगति, सकारात्मक विचार, स्वस्थ जीवन, शालीनता, सज्जनता, हँसमुख, शिष्ट एवं विनम्र व्यवहार युवावस्था को अलंकृत करने वाले सद्गुण हैं। अर्थ उपार्जन का अभ्यास नवयुवक यदि करने लगें तो उनके भीतर ऐसी विशेषताएँ उगती चली जाएंगी, जिनके द्वारा उनका भविष्य स्वर्णिम और शानदार बन जाएगा।
जीवन में कोई सुनिश्चित लक्ष्य, कुछ विशेष ध्येय-धारणा करते चलने वाले को असाधारण व्यक्तियों की कोटि में रखा जाता है। उनकी विशेषता तथा महानता केवल यही होती है कि परंपरा से हटकर साधारण जीवन के अभ्यस्त व्यक्तियों में से उन्होंने आगे बढ़कर, कुछ असामान्यता ग्रहण की है। लोग उनको महान इसलिए मान लेते हैं कि सामान्य लोग समझी-बूझी तथा एक ही लीक पर चली जा रही जीवन गाड़ी में न जाने कितनी दुःख तकलीफें अनुभव करते हैं, तब उस व्यक्ति ने एक अन्य अनजान एवं असामान्य मार्ग चुना है। उसका साहस एवं कष्ट-सहिष्णुता कुछ अधिक बढ़ी-चढ़ी है।
जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक लक्ष्य, एक उद्देश्य होना आवश्यक है। सबसे पहले अपने जीवन में लक्ष्य का, उद्देश्य का निर्धारण करो। जीवन में क्या बनना चाहते हो, क्या करना चाहते हो ? फिर इस लक्ष्य को पाने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ जुट जाओ। मन में यह पक्का विश्वास लेकर चलो कि सफलता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। निरंतर लक्ष्य की पा्रप्ति की धुन सवार रहे। युवा उम्र के इस स्वर्णिम दौर को व्यर्थ न जाने दें। अपने लक्ष्य को महान सामाजिक उद्देश्यों से जोडे़। लक्ष्य सबके लिए कल्याणकारी हो। बस फिर यह ध्यान रहे कि तमाम व्यवधानों के बावजूद मंजिल पानी है। समय निकल जाने पर पश्चाताप के सिवाय कुछ नहीं बचता है।
किसी भी कार्य की सफलता के लिए लगन, निष्ठा, कड़ी मेहनत, दूरदृष्टि, पक्का इरादा और अनुशासन आवश्यक है। जब मनुष्य की सारी शक्तियाँ विचारों की, समय की, शरीर की, साधन की एक ही लक्ष्य की ओर लग जाती हैं, तो फिर सफलता प्राप्ति में संदेह नहीं रहता। अपनी शक्ति को पहचानें। अपने लक्ष्य को चुनौती के रूप में स्वीकार करें। संकल्प करें, मै अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त करूँगा, कर सकता हँू। दृढ़ संकल्प मे आगे कोई विघ्नबाधा, कठिनाई टिक नहीं सकती। अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सदा जूझते रहो, जूझते रहो, जूझते रहो, कभी हिम्मत न हारो।
बहुत से व्यक्ति जो अपने को स्वभाव से ही निर्बल और सामथ्र्यहीन समझ लेते हैं, सहज ही विश्वास कर ही नहीं सकते कि परिश्रम से हम महान शक्तिशाली हो सकते हैं। वे अपनी वर्तमान दुर्बल अवस्था को देख यही विचार करते हैं कि हम तो सदा इसी प्रकार दीन-हीन एवं दबे हुए रहने को उत्पन्न हुए हैं, पर यह सब भ्रमजनित धारणा है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक ऐसा शक्ति केंद्र मौजूद है, जो उसे इच्छानुसार ऊँचे स्थान पर पहुंचा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा की अनंत और अपार शक्ति विद्यमान है। अपनी शक्ति के प्रवाह का समुचित प्रयोग करना ही पुरूषार्थ है। शक्ति की कहीं किसी से भीख नहीं माँगनी है, वह तो सबको स्वतः प्राप्त है, किंतु जब तक ज्ञान एवं विवेक उदय नहीं होता, तब तक निरर्थक कार्य, निरर्थक विचार एवं चिंतन-मनन द्वारा इसका दुरूपयोग होता रहता है। हम सबको ध्यान देकर निरीक्षण करते रहना चाहिए कि शक्ति का किसी भी क्रिया, चेष्टा, भाव एवं विचार के द्वारा दुरूपयोग हो रहा है या सदुपयोग। इस प्रकार हम अपनी प्राप्त शक्ति की अधिकाधिक वृद्धि कर सकते हैं। शुद्ध सात्त्विक आहार और इंद्रिय संयम से शारीरिक उन्नति होती है, स्वाध्याय के द्वारा प्राप्त ज्ञान से बौद्धिक उन्नति होती है। प्रत्येक क्षेत्र में शक्ति की प्राप्ति और बल एवं सामथ्र्य का भाव ही मानवी-उत्थान के लिए आवश्यक है। जब हम भय की जगह निर्भय होकर प्रत्येक कठिनाई को परास्त करने में समर्थ हो जाएँ, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते ही चले जाएं तथा जब हमें सदा शक्ति की महती कृपा अनुभव होने लगे, तब हम शक्ति का सदुपयोग करने वाले व्यक्ति के रूप में अपने आपको पाकर धन्य हो जाएँगे। एक बार, दो बार नहीं, हजार बार इस बात को गाँठ बाँध लीजिए कि शक्ति के बिना सफलता नहीं मिलती। अपने उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो उठिए, अपनी शक्तियों को बढ़ाइए अपने अन्दर लगन, कर्मण्यता और आत्मविश्वास पैदा कीजिए। हमेशा अनुभव करते रहें कि मैंने अपने सिर पर लक्ष्य प्राप्ति का कफन बाँधा हुआ है और सामना करने के लिए अपनी कमर कस ली है। अब संसार की कोई शक्ति मुझे लक्ष्य प्राप्ति से रोक नहीं सकती। ऐसे दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ने पर आप पाएँगे कि कदम-कदम पर सफलता परछाई की तरह आपके साथ है। जब आप अपनी सहायता खुद करेंगे तो ईश्वर भी आपकी सहायता करने के लिए दौड़ा-दौड़ा आएगा।
किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए प्रायः तीन सूत्रों का अवलंबन लेना होता है- (1) लक्ष्य का निर्धारण, (2) अभिरूचि का होना, (3) क्षमताओं का सदुपयोग। ये तीन सिद्धांत ऐसे हैं जिन्हें अपनाकर किसी भी क्षेत्र में सफल होना संभव है। समाज के अधिकांश व्यक्तियों का जीवनक्रम लक्ष्यविहीन होता है। सफल व्यक्तियों को देखकर उनका मन भी वह सौभाग्य प्राप्त करने के लिए ललचाता रहता है। कभी एक दिशा में बढ़ने की सोचते हैं कभी दूसरी। विद्वान को देखकर विद्वान, कलाकार को देखकर कलाकार बनने की ललक उठती है। कभी धनवान होने और कभी बलवान बनने की बात सोचते हैं। अपना कोई एक सुनिश्चित लक्ष्य नहीं निर्धारित कर पाते। बंदर की भाँति उनका मन भटकता रहता है। फलतः एक दिशा में बिखराव के कारण कोई प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता। असफलता ही हाथ लगती है। सफलता का दूसरा सूत्र है - अभिरूचि का होना। जो लक्ष्य चुना गया है उसके प्रति उत्साह और उमंग का जागना, मनोयोग लगाना। लक्ष्य के प्रति उत्साह उमंग न हो, मनोयोग न जुट सके, तो सफलता सदा संदिग्ध बनी रहेगी। आधे-अधूरे मन से बेगार टालने जैसे काम करने पर किसी भी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती। मनोविज्ञान का एक सिद्धांत है कि ष्ष्उत्साह और उमंग शक्तियों का स्रोत है। इनके अभाव में मानसिक शक्तियाँ परिपूर्ण होते हुए भी किसी काम में प्रयुक्त नहीं हो पाती।ष्ष् सफलता अर्जित करने का तीसरा सूत्र है - अपनी क्षमताओं का सुनियोजन-सदुपयोग। समय उपलब्ध संपदाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। शरीर, मन और मस्तिष्क की क्षमता का तथा समयरूपी संपदा का सही उपयोग असामान्य अपलब्धियों का कारण बनता है। निर्धारित लक्ष्य की दिशा में समय के एक-एक क्षण् के सदुपयोग से चमत्कारी परिणाम निकलते हैं। शरीर से श्रम करना ही पर्याप्त नहीं है, वरन मस्तिष्क की क्षमता का उसमें पूर्ण योगदान होना भी आवश्यक है। मस्तिष्क में असीम संभावनाएँ भरी पड़ी हैं। विचारों की अस्त-व्यस्तता और एक दिशा में सुनियोजन न बन पाने से ही उसकी अधिकांश शक्ति व्यर्थ चली जाती है। शक्तियों के बिखराव से कोई विशिष्ट उपलब्धि नहीं हाासिल हो पाती। सूर्य की किरणें बिखरी होने से उनकी शक्ति का पूरा लाभ नहीं हो पाता। आतिशी शीशे पर केंद्रीभूत होकर वे प्रचंड अग्नि का रूप ले लेती हैं। मस्तिष्की सामथ्र्य के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है।
सफल और असफल व्यक्तियों की आरंभिक क्षमता, योग्यता और अन्य बाह्य परिस्थितियों की तुलना करने पर कोई विशेष अंतर नहीं दीखता। फिर भी दोनों की स्थिति में धरती और आसमान का अंतर आ जाता है। इसका एकमात्र कारण है, एक ने अपनी क्षमताओं को एक सुनिश्चित लक्ष्य की ओर सुनियोजित किया, जबकि दूसरे के जीवन में लक्ष्यविहीनता और अस्त-व्यस्तता बनी रही। भौतिक अथवा आध्यात्मिक किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने वालों के साथ उपर्युक्त तीन विशेषताएँ अनिवार्य रूप से जुड़ी रही हैं। किसी भी प्रकार की सफलता की आकांक्षा रखने वालों की उपर्युक्त सूत्रों का ही आश्रय लेना होगा। परिश्रम को हम कल्पवृक्ष की संज्ञा दे सकते हैं। जिस तरह कल्पवृक्ष के निकट जाने पर अभिलाषित वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है, उसी प्रकार परिश्रम के सहारे हम मनावांछित फल को प्राप्त कर सकते हैं। परिश्रम उत्पादन का आवश्यक अंग माना गया है। अर्थशास्त्र में परिश्रम को बहुत महत्त्व दिया गया है। उत्पादन के अन्य साधनों के अभाव में भी मात्र परिश्रम के द्वारा धन का उत्पादन संभव हो जाता है। परिश्रम के श्री चरणों पर सफलता लोटती रहती है, विजयश्री उसे माला पहनती है। परिश्रम को सफलता का सोपान कहा गया है। संसार में जहाँ कहीं हम बल, बुद्धि, विद्या भौतिक संपदाएँ देखते हैं, वे सभी परिश्रम की ही देन हैं। आध्यात्मिक उपलब्धि भी परिश्रम एवं प्रयत्न से ही आती है। परिश्रम के ही परिष्कृत रूप का नाम तप है। परिश्रम में कष्ट-सहन अपेक्षित है। बिना कष्ट उठाए परिश्रम हो नहीं सकता। तप में बड़ी साधना करनी पड़ती है और इसके फलस्वरूप बड़ी-बड़ी सिद्धियां प्राप्त होती हैं। तुलसीदास जी ने अपनी रामायण में लिखा है - ष्तप अधार सब सृष्टि भवानी।ष् यानी सृष्टि की नींव तप पर अर्थात परिश्रम पर ही टिकी है। तभी तो हमारे ऋषियों ने अथक एवं अनवरत परिश्रम किया तथा ज्ञान गंगा की अजस्त्र धाराएं बहायीं, जिसमें अवगाहन कर हम युग-युग से कृतार्थ होते आ रहे हैं।
इस तरह आध्यात्मिक उत्थान का श्रेय भी परिश्रम को ही है। आज कोई बहुत साधारण स्थिति में पड़ा दीखता है, पर कल वही परिश्रम के बल पर विपुल संपत्ति अर्जित कर लेता है। कहा जाता है, अमेरिका का महान धनी व्यक्ति, पहले महज साधारण व्यक्ति ही था, किंतु उसने अध्यवसाय एवं परिश्रम के बल पर इतनी धनराशि इकट्ठी कर ली कि संसार के कोने-कोने में उसका यश फैल गया। इस तरह परिश्रम धन, वैभव के साथ-साथ यश-प्रतिष्ठा लाने में भी सहायक होता है। परिश्रम कभी-कभी कष्टकारक मालूम पड़ता है। जो हमारे मनोनुकूल न हों, उनको संपादित करने में सिर पर बोझे का अनुभव होता है। प्रायः उत्सव-त्योहार या कई तरह के आयोजनों में लोग दिन-रात कार्यरत रहतें हैं, किंतु उन्हें थकान महसूस नहीं होती । घंटो तक वे दक्षतापूर्वक कार्य करते रहते हैं, इसका एकमात्र कारण है कि उन कार्यों में मन रमा रहता है, एक रसानुभूति प्राप्त होती है। अतएव रूचि के अनुसार कार्यों का चयन कर, कर्तव्य बुद्धि से परिश्रम करने पर सब आसान हो जाता है। अकर्मण्यता, आलस्य और दीर्घसूत्रता पर कर्तव्य-भावना हावी हो जाती है और हम निष्ठापूर्वक परिश्रम करने में लग जाते हैं। इससे परिश्रम करने वाले को इष्ट की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही उसके उदाहरण से अगणित लोग प्रेरण ग्रहण कर श्रेय मार्ग का अनुगमन करते हैं। इस परिश्रम से हमें मुँह नहीं मोड़ना है। आलस्य और दीर्घसूत्रता परिश्रम के मार्ग में बाधक हैं। हम सतर्कतापूर्वक इनसे अलग रहें। जिस तरह अमृत-पान लोगों को अमर बना देता है, उसी तरह परिश्रम-पीयूष भी बल, बुद्धि, पद-प्रतिष्ठा, ज्ञान गरिमा को प्राप्त कराने वाला है। परिश्रम हमारे जीवन को सुवासित करता है। अतएव यह एक विलक्षण वरदान है।
श्रम एक देवता है। जो इसकी आराधना करता है, वह स्वास्थ्य, आनंद, संपन्नता की उपलब्धियां प्राप्त करता है।ष्ष् युग पुरूष पण्डित श्री राम शर्मा जी द्वारा विद्यार्थियों के सम्बन्ध में कही गयी बातें विद्यार्थियों पर तो लागू होती ही हैं बल्कि समाज के प्रत्येक वर्ग पर भी बराबर लागू होती हैं चूँकि विद्यार्थी भविष्य का राष्ट्र-निर्माता होता है इसलिए उसका कर्तव्य अन्य प्रौढ़ मनुष्यों की तुलना में ज्यादा होता है।