भारत देश ऋषि-मुनियों का देश रहा है हमारे सनातन धर्म के ऋषियों एवं मुनियों ने विश्व कल्याण एवं विश्व बन्धुत्व के लिए बहुत ही उल्लेखनीय कार्य किया है। हमारे धर्म-ग्रन्थ श्लोकों एव मन्त्रों से परिपूर्ण हैं लेकिन आम आदमी के जीवन में न तो इन सारे मन्त्रों का उपयोग है और न ही एक सामान्य मनुष्य के जीवन काल में यह संभव है कि वह इन सभी ऋषि-मुनियों द्वारा साधित एवं लिखित मन्त्रों का उपयोग कर सकता है। अकेले आदि गुरू श्री शंकराचार्य जी द्वारा ही उनके अल्प आयु में इतना कार्य सम्पादित किया गया है कि वह एक सामान्य मनुष्य के एक जीवन काल में नहीं जाना जा सकता है। इसलिए इस खण्ड में उन मन्त्रों का चयन किया गया है जो मानव जीवन के लिए नित्य उपयोगी हैं, सरल हैं, साध्य हैं जिनका आसानी से पालन किया जा सकता है और जो कष्ट निवारण हैं। सरलतम भाषा का प्रयोग किया गया है एवं भाषा एवं मन्त्र-शुद्धि का पूरा ध्यान रखा गया है। यदि विद्वान-गण किसी मन्त्र को इस खण्ड में मानव -कल्याण के लिए सम्मिलित कराना चाहते है तो उनका स्वागत है।

श्री गुरू स्तोत्र

अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १ ॥
अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ २
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३ ॥
स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ४ ॥
चिन्मयं व्यापियत्सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ५ ॥
त्सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजित पदांबुजः ।
वेदांतांबुजसूर्योयः तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ६ ॥
चैतन्यः शाश्वतःशांतो व्योमातीतो निरंजनः ।
बिंदुनाद कलातीतः तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ७ ॥
ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ८ ॥
अनेकजन्मसंप्राप्त कर्मबंधविदाहिने ।
आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ९ ॥
शोषणं भवसिंधोश्च ज्ञापणं सारसंपदः ।
गुरोः पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १० ॥
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ११ ॥
मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १२ ॥
गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् ।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १३ ॥
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥ १४ ॥

।। मन्त्र जप करने के सामान्य नियम।।

1. जप करने के लिए जहां तक संभव हो एक स्थान निश्चित कर लें। उस स्थान पर जितनी अधिक शुद्धता और पवित्रता रहेगी, उतना ही जप में अधिक मन लगेगा।
2. वातावरण शान्तिपूर्ण हो, इसके लिये प्रातः काल का समय उत्तम माना गया है। समय की नियमितता भी आवश्यक है।
3. शौंच-स्नानादि से निवृत होकर धुले हुए वस्त्र पहिनें। कम्बल अथवा ऊन का कम्बल का आसन बिछा लें। अपने इष्टदेव का चित्र सामने रखकर उनके ही अमृतरूप का ध्यान करें। जप के प्रारंभ में ध्यान और मानसिक प्रार्थना कर लेनी चाहिए।
4. जप की संख्या नियत कर लें। प्रतिदिन नियमित संख्या से जप करना शास्त्रविहित है। स्वयं को अनुशासनबद्ध रखकर उपासना करने से आत्मानुशासन बढ़ता है और विघ्नों को सहन करने की शाक्ति आती है।
5. जप-संख्या जानने के लिए माला का प्रयोग किया जाता है। जहां तक हो रूद्राक्ष्ज्ञ की माला प्रयोग में लाएं। यदि माला नहीं हो तो करमाला अथवा किसी अन्य किसी अन्य माला का प्रयोग करें।
6. जप के लिए निश्चित मंत्र का प्रयोग करें। यथा-संभव मन्त्रार्थ का चिन्तन भी साथ-साथ करना चाहिए। जब तक मंत्र कण्ठस्थ न हो, उसका उच्चारण शुद्ध न हो, तब तक तो लिखा हुआ कागज अथवा पुस्तक सामने रखकर बोलें। बाद में मन में ही स्मरण करें। गुप्त रूप से जप करना लाभप्रद है।
7. जप के समय व्यर्थ के विचारों का त्याग करें। मंत्र के अर्थ का चिन्तन करना ही उत्तम है।
8. एक-एक मंत्र पूरा होने पर एक-एक मनका फिरायें।

।। उपासना का महत्व।।

1. सच्ची श्रद्धा तथा विश्वास से युक्त उपासना करने से हृदय में शान्ति की धारा प्रवाहित होती है। तथा आत्मा में आनन्द की वृष्टि होती है।
2. कामनाएँ, जो शुभ तथा कल्याण करने वाली हों, पूर्ण हो जाती हैं।
3. अन्तःकरण का मलिन बनाने वाली कुत्सित भावनाओं तथा स्वार्थ एवं संकीर्णता से छुटकारा मिलता है।
4. क्षमा सरलता, स्थिरता, निर्भरता, अहंकार-शून्यता आदि शुभ भावनाएँ मनुष्य में विकसित होती हैं।
5. शरीर स्वस्थ तथा परिपुष्ट, मन सूक्ष्म तथा उन्नत, आत्मा पवित्र तथा निर्मल हो जाती है।
6. दुःखों के स्थान पर सुखों का आनन्द प्राप्त होता है और मनुष्य समृद्धियों और सफलताओं के साथ परमात्मा के आर्शीवादों को प्राप्त करता है।

ऊँ

इस मंत्र का प्रारंभ है, अन्त नहीं। ऊँ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है। अ उ म जिसका तात्पर्य ब्रह्य, विष्णु एवं महेश से है और यह भू-लोक, भूवःलोक एवं स्वर्ग लोक का प्रतीक है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों एवं ग्रन्थियों से टकराती है। इससे बहुत सारे शारीरिक लाभ होने के साथ-साथ मानसिक बीमारियों में भी उपयोगी है। इसको क्षमतानुसार 5,7,11,21 अथवा इससे ज्यादा बार भी कर सकते है।

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ऊँ नमः शिवाय

सबसे सरल एवं लोकप्रिय मंत्र है। यह भगवान शिव को समर्पित है इसे पन्चाक्षर मंत्र भी कहा जाता है सही ढंग से जप करने से मन को शान्ति मिलती है एक आध्यात्मिक ज्ञान लाता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि यह मंत्र जाप करने से शरीर के लिए साउण्ड थेरेपी एवं आत्मा के लिए अमृत की भाँति है। इसका जाप एक औषधीय गीत के समान है। इस मंत्र का 108 बार जपना चाहिए।

”श्री राम जय राम जय जय राम”

यह सात शब्दों वाला तारक मंत्र है। सरल होने के साथ इस मंत्र में बहुत शक्ति छिपी हुई है। मंत्र जप के लिए आयु, काल, स्थान, जाति-पात कोई बंधन नहीं। पूर्ण विश्वास के साथ, किसी क्षण एवं स्थान पर इसे जपा जा सकता है।

”राम से बड़ा राम का नाम”

योग शास्त्र के अनुसार ’रा’ वर्ण को सौर ऊर्जा का कारक माना गया है। यह हमारी रीढ़-रज्जू के दायीं ओर स्थित पिंगला नाड़ी में स्थित है। यहां से शरीर मे पौरूष ऊर्जा का संचार होता है। ’मा ’ वर्ण का चन्द्र ऊर्जा कारक अथवा स्त्री लिंग माना गया है। यह रीढ़-रज्जू के बायीं ओर स्थित इड़ा नाड़ी में प्रवाहित होता है इसलिए निरन्तर ’राम’ का उच्चारण करते रहने से दोनों नाड़ियों में प्रवाहित ऊर्जा में सामन्जस्य बना रहता है।

विपत्ति-नाश के लिए

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ।।

आरोग्य और सौभाग्यकी प्राप्तिके लिए-

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।

सुलक्षणा पत्नीकी प्राप्तिके लिए-

पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोभ्द्रवाम्।।

शक्ति-प्राप्ति के लिए-

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते।।

प्रसन्नताकी प्राप्ति के लिए-

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव।।

गायत्री मंत्र

आत्म शान्ति एवं सम्पूर्ण कल्याण के लिए -
ॐ भूर्भुवरू स्वरू तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नरू प्रचोदयात्ण्

महामृत्युंजय मंत्र

आयु बुद्धि तेज सुख समृद्धि एवं शान्ति के लिए-
ॐ हौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उव्र्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। ॐ स्वः भुवः भूः ॐ । ॐ सः जूं हौं।

नवग्रह मंत्

सूर्य दोष:-

सूर्य ग्रह उर्जा का प्रतीक है और साथ ही यह जातक को समाज में मान.सम्मान और यश की प्राप्ति कराता है द्य जिस जातक की कुंडली में सूर्य ग्रह सही स्थिति में बैठा हो उसका शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है द्य ऐसा व्यक्ति शरीर से हष्ट.पुष्ट और बलवान होता है द्य इसके विपरीत जिस जातक की कुंडली में सूर्यदोष हो वह सदा बीमारी से परेशान रहता है द्य ऐसा संभव है कि ऐसा व्यक्ति किसी असाध्य रोग की गिरफ्त में आ जाये द्य सूर्य गृह का नकारात्मक प्रभाव आपकी नौकरी में भी अड़चन का कारण बन सकता है

सूर्य दोष की शांति के लिए आप प्रतिदिन इस मंत्र का जप करें :- ऊॅं सूं सूर्याय नमः प्रतिदिन सुबह स्नान आदि करके पूजा के समय सूर्यदेव के उपरोक्त मंत्र के यथासंभव जप करें द्य शीघ्र ही इसके परिणाम आपको दिखाई देने लग जायेंगे द्य

चन्द्र दोष :-

हिन्दू धरम में चन्द्रमा को चन्द्र देव कहा गया है द्य चन्द्र देव को सोम के नाम भी पुकारा जाता है द्य लग्न कुंडली में चन्द्र दोष होने पर जातक पेट संबंधी रोगों से परेशान रहता है और मानसिक व्याधियां भी होने की सम्भावना बढ़ जाती है द्य ऐसे जातक के बिना वजह ही शत्रु बनने लग जाते है द्य व्यापार में धन की हानि होने लगती है

चन्द्र दोष शांति हेतु इस मंत्र का जप करें :- ऊॅं सों सोमाय नमः

मंगल दोष :-

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगल गृह को विनाशकारी माना गया है द्य कुंडली में मंगल गृह के नीच स्थान में होने पर मांगलिक दोष होता है द्य लग्न कुंडली में 1 ए4ए 7ए 8ए और 12 वे भाव के से किसी भी स्थान पर मंगल गृह होने पर मांगलिक दोष बनता है द्य जिसका सीधा प्रभाव जातक के वैवाहिक जीवन पर और संतान संबंधी सुख पर पड़ता है द्य

कुंडली में मांगलिक दोष निवारण के लिए आप इस मंत्र के नियमित जप करें :- ॐ भौं भौमाय नमः

बुध ग्रह दोष :-

आपकी कुंडली में बुध ग्रह का अशुभ प्रभाव आपको व्यापार और नौकरी में हानि पहुँचा सकता है द्य बोलने की शक्ति में तुतलाहट आना बुध ग्रह का नीच भाव में आने के कारण ही होता है द्य बुध ग्रह के अशुभ प्रभाव दोस्तों से मित्रता में खटास का कारण बन सकते है द्य यहाँ तक की आपकी बहन ए बुआ या मौसी का किसी भारी मुशीबत में आना बुध ग्रह के नीच भाव में होने के कारण ही होता है

बुध ग्रह दोष निवारण के लिए आप इस मंत्र का जप करें :- ॐ बुं बुधाय नमः
उपरोक्त मंत्र के जप करने के अतिरिक्त बुध ग्रह दोष होने पर माँ दुर्गा की पूजा.आराधना करना विशेष रूप से लाभप्रद माना गया है

गुरु ग्रह दोष :-

सामान्यतः गुरु ग्रह शुभ फल ही देता है किन्तु यदि गुरु ग्रह किसी पापी ग्रह के साथ विराजमान हो जाये तो कभी कभी अशुभ संकेत भी देने लगता है द्य गुरु दोष होने पर जातक विवाह व अपने भाग्य से संबधी परेशानियों का सामना करता है द्य कुंडली में गुरु दोष शारीरिक ए मानसिक व आर्थिक सभी प्रकार से कष्ट देता है

कुंडली में गुरु दोष निवारण हेतु इस मंत्र का जप करें :- ॐ बृं बृहस्पतये नमः
ब्रहस्पति ग्रह के इस मंत्र के प्रत्येक गुरुवार के दिन सुबह.सुबह पूजा के समय 108 मंत्र जप करने चाहिए द्य

शुक्र ग्रह दोष :-

शुक्र ग्रह को पति.पत्नी ए प्रेम संबंधए एश्वर्य और आनंद आदि का कारक ग्रह माना गया है द्य जिस जातक की कुंडली में शुक्र ग्रह की स्थिति अच्छी हो वह अपना सम्पूर्ण जीवन प्रेम ए एश्वर्य और आनंद से बिताता है द्य ऐसे जातक का दाम्पत्य जीवन भी प्रेम व आनंद से परिपूर्ण रहता है द्य कुंडली में शुक्र ग्रह के कमजोर होने पर जातक मूत्र संबंधी विकार ए नेत्र रोग ए गुप्तेन्द्रिय ए सुजाक ए रक्त प्रदरए प्रमेह और पांडू रोग से पीड़ित हो सकता है द्य शुक्र ग्रह की कमजोर स्थिति आपके वैवाहिक जीवन में कलह का कारण बन सकती है

शुक्र ग्रह दोष होने पर इसके अशुभ प्रभावों को कम करने हेतु इस मंत्र का जप करना चाहिए ऊँ शुं शुक्राय नमरू
उपरोक्त मंत्र के प्रतिदिन कम से कम 108 जप करें और साथ ही शुक्रवार के दिन 5 कन्याओं को खीर खिलाये और बाद में स्वयं भी खाएं

शनि ग्रह दोष :-

शनि ग्रह जिसे शनिदेव भी कहा गया है द्य हिन्दू धर्म में शनिदेव आपके द्वारा किये गये कर्मो का फल प्रदान करने वाले है द्य जातक की कुंडली में शनि की क्रूर द्रष्टि;शनि दोष द्ध उसके सम्पूर्ण जीवन को तहस.नहस कर सकती है द्य यहाँ तक की लग्न कुंडली के पहले भाव में शनि का होना जातक की मृत्यु का कारण भी बन सकता है द्य अक्सर देखा गया है कि शनि की साढ़े साती व ढैय्या से प्रभावित जातक जीवन से इतना परेशान हो जाता है कि उसे शनि शांति हेतु किसी विद्वान् पंडित से पूजा.पाठ भी कराने पड़ जाते है

शनि दोष की शांति के लिए आप शनिवार के दिन मंदिर जाए और शनिदेव को सरसों का तेल ए काले तिल और रेवड़ी का प्रसाद चढ़ाये व इस मंत्र का 108 बार जप करें :- ॐ शं शनैश्चराय नमः

राहू.केतू ग्रह दोष :-

राहू .केतू ग्रहों को छाया ग्रह कहा गया है द्य ज्योतिष शास्त्र में राहू केतू को पापी ग्रह की श्रेणी में रखा गया है द्य इन दोनों ग्रहों का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है ये दोनों ग्रह जिस भी ग्रह के साथ आ जाते है उसी के दोषों के अनुसार अपना प्रभाव दिखाने लगते है द्य जातक की लग्न कुंडली में राहू केतू की महादशा होने पर जातक जीवन भर मुशिबतों का सामना करता है

राहू ग्रह के अशुभ प्रभावों को कम करने के लिए इस मंत्र का नियमित जप करें :- ॐ रां राहवे नमः
केतू ग्रह के अशुभ प्रभावों को कम करने के लिए इस मंत्र का जप करना चाहिए :- ॐ कें केतवे नमः

आदित्यहृदय स्तोत्र

नियमित करने से अप्रत्याशित लाभ मिलता है। आदित्य हृदय स्तोत्र के पाठ से नौकरी में पदोन्नतिए धन प्राप्तिए प्रसन्नताए आत्मविश्वास के साथ.साथ समस्त कार्यों में सफलता मिलती है। हर मनोकामना सिद्ध होती है। सरल शब्दों में कहें तो आदित्य ह्रदय स्तोत्र हर क्षेत्र में चमत्कारी सफलता देता है।

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्‌ । रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्‌ ॥1॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्‌ । उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥2॥
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम्‌ । येन सर्वानरीन्‌ वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्‌ । जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्‌ ॥4॥
सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्‌ । चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्‌ ॥5॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्‌ । पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्‌ ॥6॥
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनरू । एष देवासुरगणांल्लोकान्‌ पाति गभस्तिभिरू ॥7॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवरू स्कन्दरू प्रजापतिरू । महेन्द्रो धनदरू कालो यमरू सोमो ह्यापां पतिः ॥8॥
पितरो वसवरू साध्या अश्विनौ मरुतो मनुरू । वायुर्वहिनरू प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकररू ॥9॥
आदित्यरू सविता सूर्यरू खगरू पूषा गभस्तिमान्‌ । सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकररू ॥10॥
हरिदश्वरू सहस्त्रार्चिरू सप्तसप्तिर्मरीचिमान्‌ । तिमिरोन्मथनरू शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्‌ ॥11॥
हिरण्यगर्भरू शिशिरस्तपनोऽहस्करो रविरू । अग्निगर्भोऽदितेरू पुत्रः शंखः शिशिरनाशनरू ॥12॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुरूसामपारगरू । घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥
आतपी मण्डली मृत्युरू पिगंलरू सर्वतापनरू। कविर्विश्वो महातेजारू रक्तरूसर्वभवोद् भवरू ॥14॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनरू । तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्‌ नमोऽस्तु ते ॥15॥
नमरू पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमरू । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमरू ॥16॥
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमरू । नमो नमरू सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नमरू ॥17॥
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमरू । नमरू पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे । भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमरू ॥19॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने । कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमरू ॥20॥
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे । नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥
नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभुरू । पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिरू ॥22॥
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितरू । एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्‌ ॥23॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च । यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभुरू ॥24॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । कीर्तयन्‌ पुरुषरू कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम्‌ । एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥26॥
अस्मिन्‌ क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि । एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्‌ ॥27॥
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्‌ तदा ॥ धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान्‌ ॥28॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्‌ । त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्‌ ॥29॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम्‌ । सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्‌ ॥30॥
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनारू परमं प्रहृष्यमाणरू । निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31॥
।।सम्पूर्ण ।।

माँ दुर्गाजी के 32 नाम

जो मनुष्य दुर्गाकी इस नाममालाका पाठ करता है, वह निःसंदेह सब प्रकार के भय से मुक्त हो जायेगा। ’कोई शत्रुओं से पीड़ित हो अथवा दुर्भेद्य बन्ध में पड़ा हो, इन बत्तीस नामों के पाठमात्र से संकट से छुटकारा पा जाता है।’

ॐदुर्गाए
दुर्गतिशमनी
दुर्गाद्विनिवारिणीए
दुर्गमच्छेदनी
दुर्गसाधिनीए
दुर्गनाशिनीए
दुर्गतोद्धारिणीए
दुर्गनिहन्त्रीए
दुर्गमापहाए
दुर्गमज्ञानदाए
दुर्गदैत्यलोकदवानलाए
दुर्गमाए
दुर्गमालोकाए
दुर्गमात्मस्वरुपिणी
दुर्गमार्गप्रदाए
दुर्गमविद्याए
दुर्गमाश्रिताए
दुर्गमज्ञानसंस्थानाए
दुर्गमध्यानभासिनीए
दुर्गमोहाए
दुर्गमगाए
दुर्गमार्थस्वरुपिणीए
दुर्गमासुर संहंत्रिए
दुर्गमायुधधारिणीए
दुर्गमांगीए
दुर्गमताए
दुर्गम्याए
दुर्गमेश्वरीए
दुर्गभीमाए
दुर्गभामाए
दुर्गमोए
दुर्गोद्धारिणी।

सिद्धकुंजिका स्तोत्र

सिद्ध कंुजिका स्त्रोत, दंर्गा सप्तशती पाठ का सार माना गया है। इसलिए दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से मिलने वाला सम्पूर्ण फल सिद्ध कुंजिका स्त्रोत पाठ के करने मात्र से प्राप्त हो जाता है।

शिवउवाच

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत् ।।१।।

न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ।।२।।

कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ।।३।।

गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तंभोच्चाटनादिकम।
पाठमात्रेण संसिध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ।।४।।

अथ मंत्रः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।।

। इति मंत्रः ।
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ।।१।।
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि ।
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।।२।।
ऐंकारी सृष्टिरुपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका ।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोस्तु ते।।३।।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ।
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ।।४।।
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ।।५।।
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ।।६।।
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा।।७।।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ।
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिं कुरुष्व मे।।८।।
इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ।।
यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ।।

इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्। ।। ॐ तत्सत्।।

भगवान गणेश के मंत्र

प्रथम पूजनीय श्री गणेश जी को विनायकए विघ्नेश्वरए गणपतिए लंबोदर के नाम से भी जाना जाता हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार किसी भी कार्य से पहले गणेश जी की पूजा की जाती है।
ऊँ गम गणपतये नमः

विष्णु मंत्र

शास्त्रों के अनुसार प्रतिदिन भगवान विष्णु के मंत्र का जाप करना विशेषकर वैशाख, कार्तिक और श्रावण में विष्णु आराधना बहुत महत्वपूर्ण मानी गई है। श्रीहरि विष्णु का स्वरूप शांत और आनंदमयी है। वे जगत का पालन करने वाले देवता हैं। नियमित भगवान विष्णु का स्मरण करने से जीवन के समस्त संकटो का नाश होता है धन-वैभव की प्राप्ति होती है।
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नमः

कामदेव मंत्र

कामदेव प्रेम, आकर्षण, काम भावना और प्रबलतम लगाव के देवता हैं। उनके यह पौराणिक मंत्र मनचाहा प्यार पाने में सहायक हो सकते हैं। मंत्र के नियमित जाप से आकर्षण शक्ति में वृद्धि होती है। ’ऊँ कामदेवाय विद्य्रहे, रति प्रियायै धीमहि, तन्नो अनंग प्रचोदयात्’

कुबेर मंत्र

धन प्राप्ति की कामना करने वालो साधकों को कुबेर जी का यह मंत्र जपना चाहिये। इसके नियमित जप से साधक को अचानक धन की प्राप्ति होती है।
ऊँ श्रीं हृीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नमः

कनकधारा स्तोत्र

हम सभी जीवन में आर्थिक तंगी को लेकर बेहद परेशान रहते हैं। धन प्राप्ति के लिए हरसंभव श्रेष्ठ उपाय करना चाहते हैं। धन प्राप्ति और धन संचय के लिए पुराणों में वर्णित स्तोत्र चमत्कारिक रूप से लाभ प्रदान करते हैं। अगर किसी दिन यह भी भूल जाएं तो बाधा नहीं आती क्योंकि यह सिद्ध मंत्र होने के कारण चैतन्य माना जाता है
अपार धन प्राप्ति और धन संचय के लिए कनकधारा स्तोत्र का पाठ करने से चमत्कारिक रूप से लाभ प्राप्त होता है।>

अंगहरे पुलकभूषण माश्रयन्ती भृगांगनैव मुकुलाभरणं तमालम।
अंगीकृताखिल विभूतिरपांगलीला मांगल्यदास्तु मम मंगलदेवतायारू।।1।।

मुग्ध्या मुहुर्विदधती वदनै मुरारैरू प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकर विमहोत्पले या सा मै श्रियं दिशतु सागर सम्भवायारू।।2।।

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्द हेतु रधिकं मधुविद्विषोपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धमिन्दोवरोदर सहोदरमिन्दिरायरू।।3।।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दम निमेषमनंगतन्त्रम्।
आकेकर स्थित कनी निकपक्ष्म नेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजंगरायांगनायारू।।4।।

बाह्यन्तरे मधुजितरू श्रितकौस्तुभै या हारावलीव हरि‍नीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतो पि कटाक्षमाला कल्याण भावहतु मे कमलालयायारू।।5।।

कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव्।
मातुरू समस्त जगतां महनीय मूर्तिभद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायारू।।6।।

प्राप्तं पदं प्रथमतरू किल यत्प्रभावान्मांगल्य भाजिरू मधुमायनि मन्मथेन।
मध्यापतेत दिह मन्थर मीक्षणार्द्ध मन्दालसं च मकरालयकन्यकायारू।।7।।

दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम स्मिभकिंचन विहंग शिशौ विषण्ण।
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाहरू।।8।।

इष्टा विशिष्टमतयो पि यथा ययार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभंते।
दृष्टिरू प्रहूष्टकमलोदर दीप्ति रिष्टां पुष्टि कृषीष्ट मम पुष्कर विष्टरायारू।।9।।
गीर्देवतैति गरुड़ध्वज भामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर वल्लभेति।
सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रि भुवनैक गुरोस्तरूण्यै ।।10।।

श्रुत्यै नमोस्तु शुभकर्मफल प्रसूत्यै रत्यै नमोस्तु रमणीय गुणार्णवायै।
शक्तयै नमोस्तु शतपात्र निकेतानायै पुष्टयै नमोस्तु पुरूषोत्तम वल्लभायै।।11।।

नमोस्तु नालीक निभाननायै नमोस्तु दुग्धौदधि जन्म भूत्यै ।
नमोस्तु सोमामृत सोदरायै नमोस्तु नारायण वल्लभायै।।12।।

सम्पतकराणि सकलेन्द्रिय नन्दानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरूहाक्षि।
त्व द्वंदनानि दुरिता हरणाद्यतानि मामेव मातर निशं कलयन्तु नान्यम्।।13।।

यत्कटाक्षसमुपासना विधिरू सेवकस्य कलार्थ सम्पदरू।
संतनोति वचनांगमानसंसत्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे।।14।।

सरसिजनिलये सरोज हस्ते धवलमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।।15।।

दग्धिस्तिमिरू कनकुंभमुखा व सृष्टिस्वर्वाहिनी विमलचारू जल प्लुतांगीम।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथ गृहिणी ममृताब्धिपुत्रीम्।।16।।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरां गतैरपाड़ंगैरू।
अवलोकय माम किंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयाया रू ।।17।।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिर भूमिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते बुधभावितायारू।।18।।



शिव स्तुति मंत्र

शिव स्तुति जो भगवान शंकर के अवतार माने गए भगवान शंकराचार्य द्वारा रची गई है इसलिए इसे साक्षात शंकर द्वारा दिया गया सुख का मंत्र भी माना जाता हैए जो श्वेदसार स्तवश् के नाम से प्रसिद्ध है।

कोई भी मनुष्य प्रतिदिन या सिर्फ प्रति सोमवार सुबह.शाम भगवान शिव की पूजा कर इसका पाठ और स्मरण करता हैए वह मनुष्‍य जीवन के समस्त सुखों को प्राप्त करता है।

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम।1।

महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्।2।

गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्।
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्।3।

शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्।
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपरू प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप।4।

परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्।5।

न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायुर्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा।
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीड।6।

अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमरूपारमाद्यन्तहीनं प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम।7।

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते।
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्।8।

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ महादेव शंभो महेश त्रिनेत्।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यरू।9।

शंभो महेश करुणामय शूलपाणे गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्।
काशीपते करुणया जगदेतदेक.स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि।10।

त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन।11।



हनुमान जी के 12 नाम

जैसा कि रामचरित मानस में लिखा हुआ है कि ष् कलयुग केवल नाम अधारा... सुमरि.सुमरि नर उतरहीं पाराष् और यह भी माना जाता है कि हनुमान जी ही सबसे प्रभावशाली देवता हैंण् उनका नाम सुमरने से ही सारे काम बन जाते हैं। प्रभु श्री राम के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा से ही हनुमान जी को अष्टसिद्धियों और नवनिधियों का वरदान मिला हैण् ये वही अष्टसिद्धियां और नव निधियां हैं जो हनुमान जी के उपासकों के कल्याण का काम करती हैंण् राम भक्त हनुमान जी के द्वादश यानि बारह नामों का स्मरण किया जाये तो सारी तकलीफेंए समस्याएंए व्याधियों को हनुमान जी हर लेते हैं ।

1. ऊँ हनुमान 2. ऊँ अंजनी सुत 3. ऊँ वायु पुत्र 4. ऊँ महाबल 5. ऊँ रामेष्ठ 6. ऊँ फाल्गुण सखा 7. ऊँ पिगांक्ष 8. ऊँ अमित विक्रम 9. ऊँ उदधि क्रमण 10. ऊँ सीता शोक विनाशन 11. ऊँ लक्ष्मण प्राणदाता 12. ऊँ दशग्रीक दर्पहा



पाशुपतास्त्र स्तोत्रए

इस पाशुपतास्त्र स्तोत्र का मात्र 1 बार जप करने पर ही मनुष्य समस्त विघ्नों का नाश कर सकता है। 100 बार जप करने पर समस्त उत्पातों को नष्ट कर सकता है तथा युद्ध आदि में विजय प्राप्त कर सकता है। इस मंत्र का घी और गुग्गल से हवन करने से मनुष्य असाध्य कार्यों को पूर्ण कर सकता है।

इस पाशुपतास्त्र मंत्र के पाठ मात्र से समस्त क्लेशों की शांति हो जाती है। चारों दिशा से विजय दिलाता है यह चमत्कारी स्तोत्रण्ण्ण् स्तोत्रम्झ

ॐ नमो भगवते महापाशुपतायातुलबलवीर्यपराक्रमाय त्रिपन्चनयनाय नानारुपाय नानाप्रहरणोद्यताय सर्वांगडरक्ताय भिन्नांजनचयप्रख्याय श्मशान वेतालप्रियाय सर्वविघ्ननिकृन्तन रताय सर्वसिद्धिप्रदाय भक्तानुकम्पिने असंख्यवक्त्रभुजपादाय तस्मिन् सिद्धाय वेतालवित्रासिने शाकिनीक्षोभ जनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभन्जनाय सूर्यसोमाग्नित्राय विष्णु कवचाय खडगवज्रहस्ताय यमदण्डवरुणपाशाय रूद्रशूलाय ज्वलज्जिह्राय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षय कारिणे।

ॐ कृष्णपिंग्डलाय फट। हूंकारास्त्राय फट। वज्र हस्ताय फट। शक्तये फट। दण्डाय फट। यमाय फट। खडगाय फट। नैऋताय फट। वरुणाय फट। वज्राय फट। पाशाय फट। ध्वजाय फट। अंकुशाय फट। गदायै फट। कुबेराय फट। त्रिशूलाय फट। मुदगराय फट। चक्राय फट। पद्माय फट। नागास्त्राय फट। ईशानाय फट। खेटकास्त्राय फट। मुण्डाय फट। मुण्डास्त्राय फट। काड्कालास्त्राय फट। पिच्छिकास्त्राय फट। क्षुरिकास्त्राय फट। ब्रह्मास्त्राय फट। शक्त्यस्त्राय फट। गणास्त्राय फट। सिद्धास्त्राय फट। पिलिपिच्छास्त्राय फट। गंधर्वास्त्राय फट। पूर्वास्त्रायै फट। दक्षिणास्त्राय फट। वामास्त्राय फट। पश्चिमास्त्राय फट। मंत्रास्त्राय फट। शाकिन्यास्त्राय फट। योगिन्यस्त्राय फट। दण्डास्त्राय फट। महादण्डास्त्राय फट। नमोअस्त्राय फट। शिवास्त्राय फट। ईशानास्त्राय फट। पुरुषास्त्राय फट। अघोरास्त्राय फट। सद्योजातास्त्राय फट। हृदयास्त्राय फट। महास्त्राय फट। गरुडास्त्राय फट। राक्षसास्त्राय फट। दानवास्त्राय फट। क्षौ नरसिन्हास्त्राय फट। त्वष्ट्रास्त्राय फट। सर्वास्त्राय फट। नः फट। वः फट। पः फट। फः फट। मः फट। श्रीः फट। पेः फट। भूः फट। भुवः फट। स्वः फट। महः फट। जनः फट। तपः फट। सत्यं फट। सर्वलोक फट। सर्वपाताल फट। सर्वतत्व फट। सर्वप्राण फट। सर्वनाड़ी फट। सर्वकारण फट। सर्वदेव फट। ह्रीं फट। श्रीं फट। डूं फट। स्त्रुं फट। स्वां फट। लां फट। वैराग्याय फट। मायास्त्राय फट। कामास्त्राय फट। क्षेत्रपालास्त्राय फट। हुंकरास्त्राय फट। भास्करास्त्राय फट। चंद्रास्त्राय फट। विघ्नेश्वरास्त्राय फट। गौः गां फट। स्त्रों स्त्रौं फट। हौं हों फट। भ्रामय भ्रामय फट। संतापय संतापय फट। छादय छादय फट। उन्मूलय उन्मूलय फट। त्रासय त्रासय फट। संजीवय संजीवय फट। विद्रावय विद्रावय फट। सर्वदुरितं नाशय नाशय फट।



श्री रामावतार.स्तुति

माता कौशल्या द्वारा भगवान विष्णु के राम अवतार की स्तुति भगवान विष्णु ने अयोध्या में राजा दशरथ एवं रानी कौशल्या के पुत्र के रूप में जन्म लिया । रानी कौशल्या ने अद्भुत रूप में प्रभु के प्रगट होने पर भगवान की स्तुति की जिसका वर्णन तुलसीदास जी ने राम जन्म प्रसंग में किया है। तुलसीदासजी द्वारा रामचरित मानस के बालकाण्ड से प्रस्तुत है श्री राम के जन्म के समय की गयी श्श्री रामावतार स्तुतिश्.

छन्द
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशिल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप विचारी ।।

लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आयुध भुजचारी ।
भूषण बनमाला नयन बिशाला सोभासिंधु खरारी ।।

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।
माया गुन ज्ञानातीत अमाना वेद पुरान भनंता ।।

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी जन अनुरागी प्रगट भयउ श्रीकंता ।।

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम.रोम प्रति वेद कहै ।
सो मम उर बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ।।

उपजा जब ज्ञाना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ।
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा ।
कीजै सिसु लीला अति प्रियशिला यह सुख परम अनूपा ।।

सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुर भूपा ।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ।।


दोहा
विप्र धेनु सुर संत हितएलीन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनुएमाया गुन गो पार ।।



श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम्

शिव त्रिदेवों में विध्वंसक हैं और लाखों हिंदुओं द्वारा उनके मुख्य देवता के रूप में पूजे जाते हैं। उनकी पूजा करने के लिए पवित्र शब्द पांच अक्षरों से बना है और इसे पंचाक्षरा कहा जाता है. ष्ना मा सी वा यष्। इस लोकप्रिय स्तोत्र में इनमें से प्रत्येक अक्षर को उनके समान माना जाता है और उनके महान गुणों के लिए उनकी प्रशंसा की जाती है।

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय
भस्माङ्गरागाय महेश्वराय ।

नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय
तस्मै नऋकाराय नमः शिवाय ॥१॥

मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय
नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय ।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय
तस्मै मऋकाराय नमः शिवाय ॥२॥

शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्दऋ
सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय
तस्मै शिऋकाराय नमः शिवाय ॥३॥

वशिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्यऋ
मूनीन्द्रदेवार्चितशेखराय ।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय
तस्मै वऋकाराय नमः शिवाय ॥४॥

यक्षस्वरूपाय जटाधराय
पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय
तस्मै यऋकाराय नमः शिवाय ॥५॥

पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसंनिधौ ।
शिवलोकमावाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥६॥



द्वादशज्योतिर्लिंगन

भारत मे द्वादशज्योर्तिलिंगन अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थस्थल हैं। प्राचाीन हिंदू धार्मिक ग्रंथ शिवपुराण में इन 12 ज्योतिर्लिंगन का वर्णन, स्थान और महत्व है। हिंदू धर्म में यह माना जाता है कि इन 12 ज्यातिर्लिंगन मे शिव दिव्य प्रकाश के रूप में प्रकट हुए थे। ज्योतिर्लिंग का अर्थ है दिव्य प्रकाश का एक लिंग। ज्योतिर्लिंग का पूजा हिन्दू धर्म में बहुत महत्व है। यह स्तोत्र का छोटा संस्करण ह,ै जो 12 ज्योतिर्लिंग की स्तुति है। ऐसा कहा जाता है जो कभी भी 12 ज्योतिर्लिंग को ईमानदारी के साथ याद करता है वह उन पापों को दूर कर देता है जो उसने अपने पिछले सात जन्मों में जमा कियें हैं।

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारंममलेश्वरम्॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥

एतेशां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति।
कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वराः॥



श्री राम वन्दना

राम वंदना श्री राम जी की स्तुति, प्रार्थना या आहवान है जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में माना जाता है। राम विष्णु के सातवें अवतार हैं। राम या रामराज्य का शासन एकदम सही नियम था और इसे एक उदाहरण के रूप में दिया जाता है कि एक शासक को कैसे व्यवहार करना चाहिए। यह प्रार्थना उन गुणों को प्राप्त करने के लिए की जाती है, जो राम में मौजूद हैं।

आपदामपहत्र्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो-भूयो नमाम्हम्।।1।।

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय मानसे।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः।।2।।

नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायक चारू चापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्।।3।।

भवाब्धिपोतं भरताग्रजं तं भक्तप्रियं भानुकूल प्रदीपम्।
भूतादिनाथं भुवनाधिपत्यम् भजामि रामं भवरोग वैद्यम्।।4।।

लोकाभिरामं रणरंगधीर राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्री रामचन्द्रम् शरणं प्रपद्ये।।5।।

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥

इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, श्रीरामचंद्रजी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र जप किया जाता है।

अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।

बुधकौशिक ऋषिरू ।
श्रीसीतारामचंद्रोदेवता ।
अनुष्टुप्‌ छन्दरू । सीता शक्तिरू ।
श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।
श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोगरू ॥

॥ अथ ध्यानम्‌ ॥
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥
वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥

॥ इति ध्यानम्‌ ॥
चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।
जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥

रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञरू पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।
शिरो मे राघवरू पातु भालं दशरथात्मजरू ॥४॥

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियरू श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलरू ॥५॥

जिव्हां विद्दानिधिरू पातु कण्ठं भरतवंदितरू ।
स्कन्धौ दिव्यायुधरू पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकरू ॥६॥

करौ सीतपतिरू पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयरू ॥७॥

सुग्रीवेशरू कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुरू ।
ऊरू रघुत्तमरू पातु रक्षरूकुलविनाशकृत्‌ ॥८॥

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तकरू ।
पादौ बिभीषणश्रीदरू पातु रामोैखिलं वपुरू ॥९॥

एतां रामबलोपेतां रक्षां यरू सुकृती पठॆत्‌ ।
स चिरायुरू सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥

पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिणरू ।
न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिरू ॥११॥

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।
नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥

जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।
यरू कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थारू सर्वसिद्द्दयरू ॥१३॥

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।
अव्याहताज्ञरू सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥

आदिष्टवान्‌ यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हररू ।
तथा लिखितवान्‌ प्रातरू प्रबुद्धो बुधकौशिकरू ॥१५॥

आरामरू कल्पवृक्षाणां विरामरू सकलापदाम्‌ ।
अभिरामस्त्रिलोकानां रामरू श्रीमान्‌ स नरू प्रभुरू ॥१६॥

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥

फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।
रक्षरूकुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रतरू पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥

संनद्धरू कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन्‌मनोरथोैस्माकं रामरू पातु सलक्ष्मणरू ॥२१॥

रामो दाशरथिरू शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थरू पुरुषरू पूर्णरू कौसल्येयो रघुत्तमरू ॥२२॥

वेदान्तवेद्यो यज्ञेशरू पुराणपुरुषोत्तमरू ।
जानकीवल्लभरू श्रीमानप्रमेय पराक्रमरू ॥२३॥

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्तरू श्रद्धयान्वितरू ।
अश्वमेधायुतं पुण्यं संप्राप्नोति न संशयरू ॥२४॥

रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नररू ॥२५॥

रामं लक्शमण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।
वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायारू पतये नमरू ॥२७॥

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्ररू ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्ररू ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।
नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥

लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।
कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥

रामो राजमणिरू सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमरू ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोैस्म्यहम्‌ ।
रामे चित्तलयरू सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥

हरे कृष्ण मंत्र

हरे कृष्ण मंत्र कलि संतारण उपनिषद में वर्णित एक मंत्र है जिसे वैष्णव लोग श्महामन्त्रश् कहते हैं। १५वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आन्दोलन के समय यह मंत्र प्रसिद्ध हुआ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे॥



श्री सीतारामजी की स्तुति

श्री राम नवमीए विजय दशमीए सुंदरकांडए रामचरितमानस कथा और अखंड रामायण के पाठ में प्रमुखता से वाचन किया जाने वाली वंदना।

श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम्।
नवकंज लोचन कंज मुखकरए कंज पद कन्जारुणम्।।

कंदर्प अगणित अमित छवी नव नील नीरज सुन्दरम्।
पट्पीत मानहु तडित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरम्।।

भजु दीन बंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम्।
रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम्।।

सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारू अंग विभूषणं।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर.धूषणं।।

इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम्।
मम ह्रदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम्।।


छंद रू
मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरों।
करुना निधान सुजान सिलू सनेहू जानत रावरो।।

एही भांती गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषी अली।
तुलसी भवानी पूजि पूनी पूनी मुदित मन मंदिर चली।।


।।सोरठा।।
जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे।।



श्री हनुमत् स्तवन

हनुमत स्तवन का प्रयोग भगवान श्री हनुमान जी के आवाहन का लिए किया जाता है। स्तवन का शाब्दिक अर्थ होता है ”प्रसन्न”! श्री हनुमत् स्तवन पूर्ण रूप से संस्कृत में लिखा हुआ है। हनुमत् स्तवन का नियमित रूप से पाठ करने से व्यक्ति के ऊपर श्री हनुमान जी का आशीर्वाद बना हुआ रहता है और व्यक्ति की सारी परेशानी समाप्त होने लगती है।

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ज्ञानघन ।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सरचाप धर ।।१।।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम् ।
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।।२।।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम् ।
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।।३।।

गोष्पदीकृतवारीशं मशकीकृतराक्षसम् ।
रामायणमहामालारत्नं वन्देऽनिलात्मजम् ।।४।।

अञ्जनानन्दनं वीरं जानकीशोकनाशनम् ।
कपीशमक्षहन्तारं वन्दे लङ्काभयङ्करम् ।।५।।

महाव्याकरणाम्भोधिमन्थमानसमन्दरम् ।
कवयन्तं रामकीर्त्या हनुमन्तमुपास्महे ।।६।।

उल्लङ्घ्य सिन्धोरू सलिलं सलीलं यरू शोकवह्निं जनकात्मजायारू ।
आदाय तेनैव ददाह लङ्कां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम् ।।७।।

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ।।८।।

आञ्जनेयमतिपाटलाननं काञ्चनाद्रिकमनीयविग्रहम् ।
पारिजाततरुमूलवासिनं भावयामि पवमाननन्दनम् ।।९।।

यत्र.यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र.तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम् ।
बाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ।।१०।।



शिव रूद्राष्टकम्

कोई भी साधक ज्यादा कुछ न करके यदि भगवान शिव का ध्यान करते हुए रामचरित मानस से लिया गया इस लयात्मक स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक पाठ करेंए तो वह शिवजी का कृपापात्र हो जाता है। यह स्तोत्र बहुत थोड़े समय में कण्ठस्थ हो जाता है। श्रावण मास में यह रुद्राष्टक बहुत प्रसिद्ध तथा त्वरित फलदायी है।श्री रुद्राष्टकम महाकवि तुलसीदास जी ने लिखा था द्य रुद्राष्टक भगवान शिव की उपासना हैं जिसमे उनके रूपए सौन्दर्यए बल का भाव विभोर चित्रण किया गया हैं द्यरुद्राष्टक काव्य संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं

नमामीशमीशान निर्वाण रूपंए विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम्‌ ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहंए चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्‌ ॥

निराकार मोंकार मूलं तुरीयंए गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्‌ ।
करालं महाकाल कालं कृपालुंए गुणागार संसार पारं नतोऽहम्‌ ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरंए मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्‌ ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगाए लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालंए प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्‌ ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालंए प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥

प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशंए अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्‌ ।
त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिंए भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम्‌ ॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारीए सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारीए प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दंए भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्‌ ।
न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशंए प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजाए न तोऽहम्‌ सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्‌ ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानंए प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥

रूद्राष्टकं इदं प्रोक्तं विप्रेण हर्षोतये
ये पठन्ति नरा भक्तयां तेषां शंभो प्रसीदति।।

॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥