भावनगर रियासत के दीवान श्री प्रभाशंकर पट्टनी की कत्र्तव्यनिष्ठा एवं कार्यकुशलता के तो सभी कायल थे, पर उनकी उदार परमार्थपरायणता से भी बहुत प्रभावित थे। उनसे सहायता की अपेक्षा के लिए आने वालों में छात्रों की संख्या काफी होती थी। एक दिन वे अपने बंगले में अंदर टहल रहे थे। इतने मे ही एक युवा, जो अच्छी वेशभूषा में था, मिलने आया। पट्टनी जी ने उसे अंदर कक्ष में बैठने को कहा। युवक ने कहा- ”आप मुझे पहचान तो नहीं पाएंगे, पर मैं आपके अनंत उपकारों से लदा हुआ हूँ। उऋण तो कभी नहीं हो सकता, पर आशा रखता हूँ कि आप मेरा निवेदन ठुकराएंगे नहीं।” पट्टनी जी ने पूछा कि वे क्या कहना चाहते हैं ? युवक ने तुरंत जेब से चार हजार रूपये निकालकर उनके चरणों पर रख दिए। उनने उन्हें उठाने को कहा व पूछा कि ये क्या व किसलिए हैं ? युवक ने कहा- ”मैं आपको स्मरण दिलाता हूँ। मैं बड़ी दीन अवस्था में था। मेरे माता-पिता दोनों नहीं थे। मैने बी. ए., एल. एल.-बी. आपके द्वारा दिए गए अनुदानों से पास किया। अब मैं इसी शहर में न्यायाधीश बनकर आया हूँ। अतः आपसे मुझे जितनी सहायता मिली, उसे लौटाने आया हूँ।” पट्टनी जी ने पैसे वापस देते हुए कहा- ”मैं दिया गया दान कभी वापस नहीं लेता। आप ऋणमुक्त होना ही चाहते हैं तो इस राशि से अन्य गरीब विद्यार्थियों की सहायता करिए। उन्हें भी स्वालंबी बनाइए।” न्यायाधीश युवक चरणों में गिर गया। उपकारों से मुक्त होने का एक ही तरीका है कि उस परंपरा को आगे भी चला दिया जाए।