ऋषि पुत्री अपाला परम ज्ञानी थीं। उनकी त्वचा में श्वेत धब्बे थे। आयुर्वेद का सारा ज्ञान उनके महर्षि पिताश्री ने झोंक दिया था। असाध्य रोग ठीक न हुआ, पर उन्हे जो जीवनसाथी मिला, वह ऋषि के सान्निध्य में ही शिक्षा प्राप्त कर बड़ा हुआ था। कृशाश्व नाम था उसका। विवाह के एक वर्ष के अंदर कृशाश्व का सारा आदर्शवाद बह गया, उसे अपाला में ढेरों दोष दीखने लगे। पतिगृह का परित्याग कर अपाला पुनः ऋषि आश्रम आ गई। अपाला ने स्वयं को तप में लगाया। पंचकोशों की शुद्धि का अभ्यास किया। आत्मसाक्षात्कार की प्रबल भावना उनके अंदर जागी थी। व्रतांे के अधिपति इंद्र देवता शरद पूर्णिमा की रात्रि उनके कक्ष में आए और उनके तप से प्रसन्न होकर त्वचा के दोष से मुक्त कर दिया। अपाला ने कहा- ”देव! यह शरीर आज नही ंतो कल, छूटेगा ही, आप तो मुझे जनहित हेतु सामथ्र्य दें, विद्या दें, प्रकाश दें।” कृपा प्राप्त हुई । अपाला ऋषित्व को प्राप्त हो गई। सारे आश्रमों, आर्यावर्त एवं राष्ट्र में यह संदेश फैलाया। कृशाश्व ने भी सुना। वह दूसरे दिन अपाला से मिलने, अनुनय-विनय कर वापस ले जाने पहुँचा, पर अपाला ने उसे स्वीकार नहीं किया। बाद में कृशाश्व ने अपाला का शिष्यत्व धारण किया, वेदमंत्रों के रहस्य जाने, समाधिसत्य जाना।