एक नगर में एक सेठ जी रहते थे। उनके माता-पिता ने उन्हें निष्काम भाव से दान करना सिखाया था। वे परिश्रम से कमाते भी थे। गरीबों, असहायों के लिए उनके यहां सदावर्त लगा रहता था, पर वे मांगने वाले याचकों को सदा निगाह नीची करके देते थे, कभी गर्व या अहंवश सिर ऊँचा नहीं करते। किसी को मना भी नहीं करते। किसी ने उनसे दृष्टि नीची रखने का कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया- ”देने वाला दूसरा है भाई! वह ऊपर वाला। वह दिन-रात देता है। मैं तो उसी की दी हुई संपत्ति दान करता हूँ। लोग मुझे दानी कहते हैं, इसी से लज्जा आती है।” पूछने वाले की रहीम की बात याद आ गई- ’देनदार कोऊ और है, तासे नीचे नैन।’ सचमुच यही है सच्ची दृष्टि।