(1) पीड़ा-निवारण

छत्रपति शिवाजी के गुरू समर्थ गुरू रामदास को एक किसान ने गन्ने के एक छोटे टुकड़े को पाने के लिए अपशब्द बोल दिए। मामला शिवाजी के सामने लाया गया। किसान ने सोचा कि अब उसे मृत्युदंड ही मिलेगा; क्योंकि घटनाक्रम राजा के गुरू से जुड़ा है। दरबार में समर्थ गुरू रामदास, शिवाजी से बोले-”शिवा! इसका दंड मैं निर्धारित करना चाहूँगा।” छत्रपति शिवाजी ने गुरू-आज्ञा सहर्ष स्वीकार की। समर्थ गुरू रामदास बोले- ”शिवा! इस किसान को पाँच बीघा जमीन दान में दे दो।” शिवाजी समेत दरबार में मौजूद सभी लोग आश्चर्य में पड़ गए कि यह कैसा दंड समर्थ गुरू रामदास जी ने दिया। सबके कुतूहल को भाँपते हुए समर्थ गुरू रामदास बोले-”यह किसान निर्धन है। इसने क्षुधा-पीड़ित होकर मुझसे दुव्र्यवहार किया। इसकी पीड़ा-निवारण हमारा कत्र्तव्य है।” गुरू रामदास के इस व्यवहार ने उस किसान को सदा के लिए बदल दिया।


(2) दंड देने का अधिकारी

ईसामसीह मार्ग पर जा रहे थे उन्होंने देखा कि कुछ लोग एक महिला को पत्थर से मार रहे हैं। उन्होंने इसका कारण पूछा तो लोग बोले-”यह युवती चरित्रहीन है और इसलिए दंड की अधिकारी है।” ईसामसीह गंभीर होकर बोले-”यह ठीक है कि व्यभिचार पाप है, परंतु दंड देने का अधिकारी वही व्यक्ति हो सकता है, जिसने स्वयं अपने जीवन में कोई पाप न किया हो।” ईसामसीह ने उस युवती से कहा-”बेटी! चरित्र जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण है। यदि कोई भूल हो गई हो तो उसे सुधारो और अपना शेष जीवन सदाचार में लगाओ।” वह युवती ईसामसीह के सम्मुख नतमस्तक हो गई।


(3) धर्म परिवर्तन

स्वामी विवेकानन्द अमेरिका यात्रा पर थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर एक अमेरिकन ने उनसे हिंदू धर्म में दीक्षित करने को कहा। स्वामी जी ने उत्तर दिया-”मै यहाँ धर्म-प्रचार के लिए आया हूँ, धर्म-परिवर्तन के लिए नहीं। मैं यहाँ यह संदेश देने आया हूँ कि अच्छा इंसान बनने के लिए धर्म-परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती। मेरी हिंदू संस्कृति विश्वबंधुत्व का संदेश देती है व मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानती है। तुम भी अपना धर्मपालन करते हुए भारतीय ऋषियों के इन संदेशों को अपने जीवन में उतारो। वह व्यक्ति उनके कथन से अभिभूत हो उठा।”


(4) सत्यवादिता

महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र पर एक महाजन ने तीन हजार रूपये का दावा कर दिया। उसका कहना था कि उन्होंने उससे एक नाव खरीदी थी और कुछ रूपये उधार लिए थे, जिन्हें वे अभी तक लौटा नहीं पाए हैं। न्यायाधीश ने भारतेंदु जी को अकेले में बुलाकर पूछा कि क्या यह दावा सही है और यदि उन्होंने नाव ली थी तो उसका वास्तविक मूल्य क्या था ? न्यायाधीश को जवाब देते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र बोले-”महोदय ! दावे में लिखा मूल्य सही है और उधार ली गई नकद राशि भी सही है। इनका मुझ पर इतने का ही दावा बनता है।” वहाँ उपस्थित लोगों ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि वे चाहे तो न्यायाधीश को कम राशि की बात कह दें, ताकि उनको कम मूल्य देकर सजा से छुटकारा मिल सके।

सबकी बातों को दरकिनार करते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने महाजन के दावे को पुनः सही ठहराया। न्यायाधीश को उन्हें सजा सुनानी पड़ी। महाजन को जब सारी घटना की जानकारी मिली तो उसने कहा-”आप एक जाने-माने लेखक हैं। यदि आप अपने दावे से मुकर भी जाते तो मैं आपका कुछ नहीं कर सकता था।” भारतेंदु हरिश्चंद्र बोले-”आपने ही कहा कि मैं एक जाना-माना लेखक हूँ। ऐसे में मेरी सत्य पर चलने की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। यदि मै असत्य बोलूँगा तो कल किस मुँह से लोगों को सत्य पर चलने की प्रेरणा दे सकूँगा ?” महाजन भारतेंदु हरिश्चंद्र की सत्यवादिता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपना केस वापस ले लिया।


(5) आत्म साक्षात्कार

ऋषि पुत्री अपाला परम ज्ञानी थीं। उनकी त्वचा में श्वेत धब्बे थे। आयुर्वेद का सारा ज्ञान उनके महर्षि पिताश्री ने झोंक दिया था। असाध्य रोग ठीक न हुआ, पर उन्हे जो जीवनसाथी मिला, वह ऋषि के सान्निध्य में ही शिक्षा प्राप्त कर बड़ा हुआ था। कृशाश्व नाम था उसका। विवाह के एक वर्ष के अंदर कृशाश्व का सारा आदर्शवाद बह गया, उसे अपाला में ढेरों दोष दीखने लगे। पतिगृह का परित्याग कर अपाला पुनः ऋषि आश्रम आ गई। अपाला ने स्वयं को तप में लगाया। पंचकोशों की शुद्धि का अभ्यास किया। आत्मसाक्षात्कार की प्रबल भावना उनके अंदर जागी थी। व्रतांे के अधिपति इंद्र देवता शरद पूर्णिमा की रात्रि उनके कक्ष में आए और उनके तप से प्रसन्न होकर त्वचा के दोष से मुक्त कर दिया। अपाला ने कहा- ”देव! यह शरीर आज नही ंतो कल, छूटेगा ही, आप तो मुझे जनहित हेतु सामथ्र्य दें, विद्या दें, प्रकाश दें।” कृपा प्राप्त हुई । अपाला ऋषित्व को प्राप्त हो गई। सारे आश्रमों, आर्यावर्त एवं राष्ट्र में यह संदेश फैलाया। कृशाश्व ने भी सुना। वह दूसरे दिन अपाला से मिलने, अनुनय-विनय कर वापस ले जाने पहुँचा, पर अपाला ने उसे स्वीकार नहीं किया। बाद में कृशाश्व ने अपाला का शिष्यत्व धारण किया, वेदमंत्रों के रहस्य जाने, समाधिसत्य जाना।


(6) पुण्य की संपदा

आद्य शंकराचार्य भिक्षाटन पर थे। एक घर में पुकार लगाई। एक बुढ़िया आई और कहा कि मेरे पास देने को कुछ भी नहीं। बस एक आँवला भर है, यही आपको दे रही हूँ। यह उसका शत प्रतिशत दान था, पर पूरे भाव के साथ था। भरी आँखों से उस आँवले को स्वीकार कर उन्होंने महालक्ष्मी से उस माँ की दरिद्रता मिटाने की प्रार्थना की। यह स्तुति ’कनकधारा स्तोत्र’ कहलाती है। ऐसा कहा जाता है कि महालक्ष्मी ने सोने के आँवले बरसाए। उस माँ के सारे अभाव दूर हो गए। आज भी वही भाव हों, श्रेष्ठ कार्यों के लिए सौ प्रतिशत देने का भाव हो, वह स्तोत्र आद्य शंकर की मनःस्थिति में गाया जाए तो वही प्रभाव प्रस्तुत कर सकता है। शर्त एक ही है, अपना सब कुछ दे देने का भाव। धन नहीं पुण्य की संपदा बड़ी है। वही हमारे साथ जाएगी।


(7) अहंकार

नदी के किनारे एक विशाल शमी का वृक्ष था, एक बेंत का पेड़ भी लगा था, जिसकी लताएं फैली हुई थीं । एक दिन नदी में भयंकर बाढ़ आई । प्रवाह प्रचंड था। शमी सोचता था कि मेरी जडे़ं गहरी हैं। मेरा क्या नुकसान होगा। इसी बीच लहरों ने जड़ों के नीचे की मिट्टी काटनी शुरू कर दी। हर लहर मिट्टी खिसका देती । देखते-देखते वृक्ष उखड़ गया। देखने वालों ने अगले दिन पाया कि वृक्ष उखड़ा पड़ा है। उसकी जड़ों ने हाथ खड़े कर दिए और वह अब शांत हो चुकी नदी के किनारे असहाय पड़ा है। बेंत का गुल्म इसी बीच उसी बाढ़ से जूझा। जब पानी का प्रवाह तेज हुआ तो वह झुका और मिट्टी की सतह पर लेट गया। गरजता पानी उस पर होकर गुजर गया। बाढ़ उतरने पर उसने पाया कि वह तो सुरक्षित है, पर उसका पड़ोसी उखड़ा पड़ा है। देखने वाले चर्चा कर रहे थे कि अहंकारी, अक्खड़ और अदूरदर्शी जो समय की गति का नहीं पहचान पाते, इसी तरह समय के प्रवाह से उखड़ जाते हैं। जो विनम्र हैं, झुकते हैं, अनावश्यक टकराते नहीं, तालमेल बिठा लेते हैं, वे अपनी सज्जनता का सुफल पाकर रहते हैं।


(8) मनुष्यता

राजा बालीक ने अपने प्रमुख सचिव विश्वदर्शन को पद से हटा दिया। कोइ्र्र छोटी-सी बात बुरी लग गई थी तो यह कदम उठाया। विश्वदर्शन अपने गाँव जाकर पुनः खेती करके प्रसन्नतापूर्वक जीवन बिताने लगे। एक दिन बालीक की इच्छा हुई कि देखें उसकी क्या स्थिति है। छद्यवेश में ही राजा ने पूछ लिया- ”आपको तो राजा ने पद से हटा दिया। तब भी आप इतने प्रसन्न क्यों ? और इतने सारे आपके समर्थक कैसे ?” विश्वजीत बोले-”मनुष्यता के सिद्धांतो का पालन किया मैंने। पहले तो मुझसे राजा से जुड़ा होने के कारण लोग थोड़ा भय भी रखते थे। अब वह नहीं है। खुलकर बात करते हैं। परिश्रम की रोटी खाता हूँ। सेवा-सहानुभूति से भरे जीवन में जो आनंद है वह और कहाँ मिलेगा। ”
राजा को लगा, एक योग्य व्यक्ति खो दिया। सम्मान पद से नहीं, मानव गरिमा के अनुरूप जीवन जीने के कारण मिलता है।


(9) उपकार

भावनगर रियासत के दीवान श्री प्रभाशंकर पट्टनी की कत्र्तव्यनिष्ठा एवं कार्यकुशलता के तो सभी कायल थे, पर उनकी उदार परमार्थपरायणता से भी बहुत प्रभावित थे। उनसे सहायता की अपेक्षा के लिए आने वालों में छात्रों की संख्या काफी होती थी। एक दिन वे अपने बंगले में अंदर टहल रहे थे। इतने मे ही एक युवा, जो अच्छी वेशभूषा में था, मिलने आया। पट्टनी जी ने उसे अंदर कक्ष में बैठने को कहा। युवक ने कहा- ”आप मुझे पहचान तो नहीं पाएंगे, पर मैं आपके अनंत उपकारों से लदा हुआ हूँ। उऋण तो कभी नहीं हो सकता, पर आशा रखता हूँ कि आप मेरा निवेदन ठुकराएंगे नहीं।” पट्टनी जी ने पूछा कि वे क्या कहना चाहते हैं ? युवक ने तुरंत जेब से चार हजार रूपये निकालकर उनके चरणों पर रख दिए। उनने उन्हें उठाने को कहा व पूछा कि ये क्या व किसलिए हैं ? युवक ने कहा- ”मैं आपको स्मरण दिलाता हूँ। मैं बड़ी दीन अवस्था में था। मेरे माता-पिता दोनों नहीं थे। मैने बी. ए., एल. एल.-बी. आपके द्वारा दिए गए अनुदानों से पास किया। अब मैं इसी शहर में न्यायाधीश बनकर आया हूँ। अतः आपसे मुझे जितनी सहायता मिली, उसे लौटाने आया हूँ।” पट्टनी जी ने पैसे वापस देते हुए कहा- ”मैं दिया गया दान कभी वापस नहीं लेता। आप ऋणमुक्त होना ही चाहते हैं तो इस राशि से अन्य गरीब विद्यार्थियों की सहायता करिए। उन्हें भी स्वालंबी बनाइए।” न्यायाधीश युवक चरणों में गिर गया। उपकारों से मुक्त होने का एक ही तरीका है कि उस परंपरा को आगे भी चला दिया जाए।


(10) लोकसेवा

फ्रांसिस ने एक कोढ़ी को चिकित्सा हेतु धन दिया, वस्त्र दिए स्वयं उसकी सेवा की। एक गिरजाघर की मरम्मत हेतु पिता की दुकान से कपडे़ की गाँठे और अपना घोड़ा बेचकर धन की व्यवस्था कर दी। पिता को पता चला तो उन्होंने पीटा एवं अपनी संपदा के अधिकार से वंचित करने की धमकी दी। पिता की धमकी सुनकर वे बोले- ”आपने मुझे बहुत बड़े बंधन से मुक्त कर दिया। जो संपत्ति लोकहित में न लग सके, उसे दूर से प्रणाम है।” कहकर उन्होंने पिता के दिए कपड़े भी उतार दिए और एक चोगा पहनकर निकल गए। आगे यही संत फ्रांसिस कहलाए ।
लोकसेवा के मार्ग में बाधा बनने वाली संपदा को त्याग ही देना चाहिए।

(11) देशभक्त

अफगान का आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली भारत विजय हेतु आगे बढ़ता हुआ पानीपत के मैदान तक आ पहुंचा । यही उसकी मराठे सैनिकों से टक्कर थी। एक दिन अब्दाली अपने शिविर के बाहर विचार-विमर्श कर रहा था कि उसकी दृष्टि मराठा शिविर पर पड़ी, जहां कई स्थानों पर अग्नि जल रही थी। उसने अपने गुप्तचर सैनिक से पूछा- ”ये अलग-अलग आग क्यों जल रही है ? अभी तो गरमी के दिन हैं।” गुप्तचर ने कहा- ”ये लोग किसी का छुआ खाना नहीं खाते । सभी अलग-अलग खाना बनाते हैं।” अब्दाली ने जोर से ताली बजाई, सारे सिपहसालार आ गए। उसने कहा- ”चलो ! अभी आक्रमण करो।” तत्काल तीन ओर से घेरकर आक्रमण किया गया। लड़ाई में प्रधान सेनापति सदाशिव राव तो मारा गया, पर कई अफगानी सैनिकों को मार लेने वाले इब्राहिम गार्दी नामक एक मुख्य सेनापति को बंदी बना लिया गया। उसे अब्दाली के समक्ष प्रस्तुत किया गया, पूछा- ”तुम मुसलमान होकर मराठों का साथ क्यों दे रहे थे ? मैं तम्हें बीस हजार सैनिकों का नायक बनाता हूँ। तुम मुक्त हो। मेरे साथ काम करो।” इब्राहिम बोला- ”हिंदुस्तान मेरा वतन है, मेरी जन्मभूमि है। इसी की मिट्टी में मैं बड़ा हुआ हूँ। मुझे इस देश से प्यार है। इस पर निगाह डालने वाले की मै आँखे नोच डालूंगा।” अहमदशाह अब्दाली ने उसकी यह बात सुनकर, उसे तुरंत मार डाला। एक देशभक्त मुसलिम ने भारतमाता के चरणों मे स्वयं को अर्पित कर दिया।


(12) निष्काम

एक नगर में एक सेठ जी रहते थे। उनके माता-पिता ने उन्हें निष्काम भाव से दान करना सिखाया था। वे परिश्रम से कमाते भी थे। गरीबों, असहायों के लिए उनके यहां सदावर्त लगा रहता था, पर वे मांगने वाले याचकों को सदा निगाह नीची करके देते थे, कभी गर्व या अहंवश सिर ऊँचा नहीं करते। किसी को मना भी नहीं करते। किसी ने उनसे दृष्टि नीची रखने का कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया- ”देने वाला दूसरा है भाई! वह ऊपर वाला। वह दिन-रात देता है। मैं तो उसी की दी हुई संपत्ति दान करता हूँ। लोग मुझे दानी कहते हैं, इसी से लज्जा आती है।” पूछने वाले की रहीम की बात याद आ गई- ’देनदार कोऊ और है, तासे नीचे नैन।’ सचमुच यही है सच्ची दृष्टि।


(13) भेदभाव

महर्षि दयानंद फर्रूखाबाद में रूके हुए थे। एक व्यक्ति दाल-चावल बनाकर लाया। गृहस्थ था एवं मजदूरी करके परिवार का पेट भरता था। स्वामी जी ने उसके हाथ का अन्न, जो श्रद्धा से लाया गया था, ग्रहण किया। ब्राह्यणों को बुरा लगा। वे बोले-”आप संन्यस्त हैं। इस हीन कुल के व्यक्ति का भोजन लेकर आप भ्रष्ट हो गए।” स्वामी जी बोले -”कैसे, क्या अन्न दूषित था ?” वे बोले-”हाँ, आपको लेना नहीं चाहिए था।” स्वामी जी बोले- ”अन्न दो प्रकार से दूषित होता है। एक तो वह, जो दूसरों को कष्ट देकर शोषण द्वारा प्राप्त किया जाता है। दूसरा वह, जहाँ कोई अभक्ष्य पदार्थ पड़ जाता है। इस व्यक्ति का अन्न तो दोनों ही श्रेणी में नही आता। इसका अन्न पश्रिम की कमाई का है। तब दूषित कैसे हुआ, मैं कैसे भ्रष्ट हो गया ? आप सबका मन मलिन है। इसी से आप दूसरों की चीजें मलिन मानते हैं। मैं जाति जन्म से नहीं, कर्म से मानता हूँ। भेदभाव त्यागकर आप सभी, सबके लिए जीना सीखिए।”


(14) शाश्वत एवं सच्ची संपत्ति

बहराम बड़ा ही धनवान था। उसका कारवाँ डाकुओं के बीच फंस गया। लाखों रूपये लूट लिए गए। बड़ा भारी नुकसान हुआ। संत अहमद उसके समीप ही रहते थे। एक दिन उससे मिलने गए। बहराम ने भोजन लाने का आदेश दिया। संत बोले- ”भाई! तुम्हारा इतना नुकसान हुआ है। मैं भोजन करने नहीं तुम्हें सांत्वना देने आया था। इसे रहने दो।” बहराम बोला- ”आप निश्ंिचत होकर भोजन लें। यह सच है कि मेरा बड़ा नुकसान हुआ है। डाकुओं ने मुझे लूटा है, पर मैंने कभी किसी को नहीं लूटा। मैं अल्लाह का एसानमंद हूँ कि मात्र मेरी नश्वर संपत्ति लूटी गई है। मेरी शाश्वत संपत्ति है-ईश्वर के प्रति मेरा दृढ़ विश्वास। वही मेरे जीवन की सच्ची संपत्ति है। वह मेरे पास है।” बहराम से संत अहमद बोले- ”भाई! सही अर्थों में तुम संत हो।”


(15) मनुष्य की वाणी

दो भाइयों में बहस छिड़ गई कि दुनिया में सबसे शक्तिशाली क्या है ? अपनी समस्या का निराकरण कराने वे अपने पिता के पास पहुंचे। सब सुनकर पिताजी बोले- ”दोनों बिलकुल गधे हो। फालतू की बातों में अपना और मेरा समय जाया कर रहे हो।” अपना अपमान सुन दोनों तिलमिलाए पर मर्यादावश कुछ बोल नहीं पाए। थोड़े समय पश्चात पिताजी पुनः बोले- ”तुम दोनों कितने बुद्धिमान हो। अपना खाली समय जीवन के गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में गुजारते हो। मुझे तुम दोनों पर बड़ा गर्व है।” अपनी प्रशंसा सुन दोनों के चेहरे खिल उठे। यह देख उनके पिताजी बोले-”पुत्रों दुनिया में सबसे शक्तिशाली मनुष्य की वाणी है। यह बिना हथियार उठाए क्रांति करा सकती है और बिना परिश्रम करे शांति भी। जीवन में इसका हमेशा सदुपयोग करना।”


(16) सर्वश्रेष्ठ शासक

सम्राट अशोक के जन्मोत्सव पर सभी प्रांतों के शासक आए थे। सम्राट ने घोषणा की कि आज के शुभ अवसर पर सर्वश्रेष्ठ शासक को पुरस्कार दिया जायेगा। सभी अपना-अपना विवरण दें। उत्तरी सीमांत का शासक बोला - ”महाराज! इस वर्ष मेरे क्षेत्र की आय में चार गुना इजाफा हुआ है।” दक्षिण प्रांत प्रमुख ने कहा-”दोगुना स्वर्ण मैंने एकत्र कर लिया है।” सीमांत के शासक ने बताया मैंने सारे उपद्रवियों का सफाया कर दिया है। अब कोई सिर नहीं उठा सकता।” अब बारी थी मगध के शासक की। उसने कहा-”इस वर्ष राजन्! मैं आधा धन ही जमा कर पाया हूँ। मैंने राजसेवकों को कुछ सुविधाएं दी हैं, क्योंकि वे निष्ठापूर्वक परिश्रम करते हैं। कुछ कर भी घटा दिए हैं। कुछ चिकित्सालय, पाठशालाएँ भी खोलने का विचार है।” राजा अशोक उठ खड़े हुए और बोले कि सर्वश्रेष्ठ मगध के शासक हैं। मैं प्रजा को जैसा रखना चाहता हूँ, वैसा ही वह कर रहे हैं।


(17) सरलता

डा. सत्यसेन वसु एक वैज्ञानिक थे। वे विश्वभारती शांति निकेतन के कुलपति थे। विश्वभारती में एक बार तत्कालील राष्ट्रपति डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के आगमन हुआ। उनके स्वागत में एक विशाल सभा का आयोजन किया गया। डाॅ. वसु एक रिक्शे में बैठकर सभास्थल गए। वह एक जनसभा थी। दूसरे सिद्धांततः डाॅ. वसु सरकारी वाहन का दुरूपयोग नहीं करते थे। वहां राष्ट्रपति की सुरक्षा हेतु नियुक्त सुरक्षा गार्ड उन्हें पहचानते नहीं थे। रिक्शे को रास्ते में रोक दिया गया। वे चुपचाप उतरकर पैदल सभास्थल की ओर चल पड़े । जब मंच के समीप पहुंचने के बाद चढ़ने लगे तो फिर सुरक्षागार्ड ने रोक दिया। तब उन्होंने न तो अपना पद बताया, न अपने नाम के आगे ’डाक्टर’ लगाया। गार्ड ने श्रोताओं के बीच बैठने का इशारा किया। सहज भाव से वे उधर बैठने चले गए। डाॅ. राधाकृष्णन ने मंच से उन्हें देखा। वे उन्हें देखते ही नीचे उतर आए एवं उन्हें ऊपर ले गए। दोनों ही नामी, किंतु कितनी सरल हस्तियां! भारत का एक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक, पर कितना विनम्र!


(18) मान-अभिमान

एक बार ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने एक जमींदार मित्र से भेंट करने कोलकाता जा रहे थे। रास्ते में एक दुकानदार जो उनका पूर्व सहपाठी भी रह चुक था, मिला और अपनी दुकान पर ले गया। बैठने को एक बोरा दिया। वे भी उस पर बैठकर बातें करने लगे। इसी बीच वहीं जमींदार मित्र कहीं से लौटता हुआ बग्घी पर निकला। उसने उन्हें जमीन पर बैठे देखा और कुछ झिझक के साथ बोला-”तुम जहां-तहां बैठ जाते हो - क्या तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा का कोई ध्यान नहीं!” सुनकर विद्यासागर बोले - ”यदि इससे तुम अपमानित महसूस कर रहे हो तो तुम अपनी मित्रता समाप्त कर दो, ताकि फिर कोई शिकायत तुम्हें न हो। वह गरीब है, केवल इसलिए मैं अपने दुकानदार मित्र का अपमान नहीं कर सकता।”
महामानव हमेशा सरल एवं सहज, मान-अभिमान से परे होते हैं।


(19) उपासना

गोस्वामी तुलसीदास जी बनारस में शेष सनातन जी के पास रहकर पढ़ रहे थे। बाल्यकाल ही था। वेद-वेदांग, व्याकरण आदि सीख रहे थे। मणिकर्णिका घाट पर एक तांत्रिक था बटेश्वर। उसने तुलसीदास से कहा- ”तू हनुमान जी की उपासना करता है। हिम्मत है तो जा-रात के बारह बजे पीपल के पास खड़ा होकर दिखा। भूत पिशाच तूझे खा जाएंगे । तेरे हनुमान कुछ नहीं कर पाएंगे।” तुलसीदास जी को शेष सनातन की पत्नी बहुत व्यार करती थीं। उन्होंने कहा-” तुम हनुमान जी को याद करके जाओ।” गोस्वामी जी ने दिन भर में हनुमान चालीसा लिख दी और रात को बारह बजे जाकर पीपल के नीचे शंख बजाकर आ गए। फिर तो इतना विश्वास जमा हनुमान जी पर कि श्रीराम कथा को ही अपनी आजीविका का आधार बना लिया। सुरीला कंठ था। बड़े लोकप्रिय हुए। संस्कृत में वाल्मीकि रामायण कहते फिर हिंदी के पद में अनुवाद करके सुना देते । तुलसी ने पहली अवधी कथा अयोध्या में कही थी। ऐसा कहते हैं कि जिस दिन यह पूरी हुई, उसी दिन पहली बार श्रीराम लला के मंदिर का ताला अकबर ने खुलवाया था।


20 महाभारत का लेखन

ऐसी पौराणिक कथा है कि महाभारत जैसे विराट ग्रंथ का लेखन कार्य महर्षि व्यास ने गणेश जी को सौंपा। गणेश जी ने इस भगीरथ कार्य को स्वीकार किया, पर वे लेखन में बहुत तेज थे। शेखी में ही उन्होंने शर्त रखी कि महर्षि व्यास सत्त बोलते रहेंगे, रूकेंगे नही - वरना वे लेखन कार्य बीच में ही छोड़ देंगे। महर्षि व्यास तो ऋषि शिरोमणि थे! उन्होंने गणेश जी का प्रस्ताव मान्य किया, पर सामने शर्त रखी कि - गणेश जी समझे बगैर एक भी श्लोक लिखेंगे नही! अर्थात बीच-बीच में नयी रचना सोचने का समय महर्षि को सहज ही मिल गया! वाह! एक बुद्धि की देवता, तो एक बुद्धि के विजेता।

क्रमशः जारी रहेगा