प्रेरक प्रसंग का उद्देश्य व्यक्तियों को उन प्रसंगो एवं संवादो से अवगत कराना है जिससे वे प्रेरणा ले सकें, अपने पर लागू करते हुए चिन्तन करें और यदि उन्हें कुछ भी अच्छाई महसूस होती है तो उसे ग्रहण करें, आत्म चिंतन करते हुए आत्म सुधार एवं आत्म विकास करें। साथ ही यदि उन्हें ऐसे प्रसंग वास्तव में उपयोगी साबित हुए हैं तो अन्य लोगों को बताएं, अन्य लोगों की संकीर्ण सोच को सकारात्मकता के साथ विस्तार सोंच में बदलने का प्रयास करें।

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बेटी

एक अनपढ़ महिला की शादी उसी की विरादरी के एक लड़के से की जाती है और यह बाल-विवाह होता है। बाल-विवाह का कारण उस महिला का परिवार होता है चूंकि उस महिला के माँ की मृत्यु उसके जन्म के समय ही हो जाती है इसलिए वह पूरे परिवार के लिए अशुभ मानी जाती है और उसका पालन-पोषण ननिहाल मे उसकी नानी के द्वारा किया जाता है और जब कोई व्यक्ति अपने परिवार में सम्मान नहीं पाता है तो उसका सम्मान बाहर भी नहीं होता है और इस तरह यह बालिका (महिला) उपेक्षित रहती है। उसकी नानी एक दयालु महिला होताी है और वही उसकी माँ-बाप, भाई, बहन सब है। इधर नानी भी अपनी वृद्धा अवस्था की तरफ बढ़ रही होती है तो उसका सोचना यह रहता है कि इसकी जल्द से जल्द शादी कर दी जाय और यह काम वह अपने जीवन काल में ही संपन्न करना चाहती थी जिससे वह निश्चितन्ता से मर सके। यही एक कारण उस महिला के बाल-विवाह का होता है। परिवार साधारण था, बिना दहेज के धनी परिवार में शादी हो नहीं सकती थी क्योंकि माँ मर चुकी थी, पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। मामा लोग अपने खर्चों से ही दबे थे अर्थात स्थिति प्रतिकूल थी लेकिन सामाजिक लोक-लाज के कारण मामा लोग शादी की व्यवस्था करते हैं और शादी हो जाती है। समय परिवर्तन लेता है और लड़की विदा होकर ससुराल जाती है। सास को पूरी बात एवं बचपन आदि के बारे में पहले से पता होता है और साधारण दान-दहेज के बिना शादी उसको अपमान का पात्र बनाती है। उसे हमेशा सास-नन्द आदि का ताना छोटी-छोटी गलतियों पर मिलता रहता है और उसकी वह आदी हो जाती है और क्षमतानुसार सब की सेवा करती है। सास का रोज पैर दबा कर सोने जाती है और इस तरह धीरे-धीरे चीजें सामान्य होने लगती हैं। समय बीतता रहता है और महिला गर्भवती हो जाती है। अब उस महिला से नन्दों को भतीजा चाहिए, ससुर को कुल का चिराग चाहिए, पति को बेटा चाहिए। कुल-मिलाकर उससे सबको लड़का ही चाहिए था जो पूर्णतया उसके वश की बात नहीं थी लेकिन अपेक्षा सबको थी और इसी आशा के साथ कि बेटा पैदा होगा, उसके प्रति सबका व्यवहार अच्छा हो जाता है और वह भी खुश रहने लगती है कि आने वाली संतान जरुर उसके लिए शुभ होगी क्योंकि गर्भ में आते ही परिवार के लोग बदल गये लेकिन इस आशंका से कि कहीं लड़की न पैदा हो जाय, वह सिहर जाती है लेकिन कुछ भी उसके वश की बात नहीं थी।

समय पूरा हुआ और बहू ने सबकी आशाओं एवं अपेक्षाओं पर पानी फेरते हुए एक बेटी को जन्म दिया । फिर क्या था ? कोहराम मच गया। सब के सब नाराज। नन्दों का नेग मारा गया और सभी अप्रसन्न एवं खिन्न क्योंकि घर की बहू ने बेटी को जन्म दिया था जिसके लिए सिर्फ वही और सिर्फ वही ही जिम्मेदार और दोषी थी। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि बेटा होने या न होने में पूर्णतया पुरुष जिम्मेदार है न कि महिला लेकिन इस पुरुष प्रधान अविवेकी समाज में दोष सिर्फ महिला का दिया जाता है क्योंकि बच्चा उसी के पेट से पैदा होता है। परिवार के सभी लोग एकमत से निर्णय लेते हैं इस अशुभ महिला को छोड़ दिया जाय और उसके पति की स्वीकृृित के बाद कि उसकी दूसरी शादी हो जायेगी, उस महिला को बहाने से उसे ननिहाल छोड़ दिया जाता है । ननिहाल इसलिए छोड़ा जाता है क्योंकि मायकेे में पिता दसूरी शादी करके अपनी गृहस्थी मे व्यस्त रहता है। इस महिला से उसका पहले भी कोई संबन्ध नहीं रहता है इसलिए ननिहाल ही एक जगह है जहँा उसे छोड़ जाता है क्योंकि वही से शादी हुयी थी और कहने के लिए ननिहाल ही उसका मायका है।

ननिहाल में परिस्थितियां बहुत बदल चुकी होतीं हैं। नानी की मृत्यु हो चुकी होती है और बड़े मामा की भी मृत्यु हो चुकी होती है, दुर्भाग्य ऐसा कि उसे चाहने वाला कोई नही होता है। ननिहाल में वह दिनभर काम करती लेकिन उसे भर-पेट भोजन नहीं मिलता, उसकी बेटी को दूध तो बहुत दुर्लभ वस्तु थी अगर वह चीनी पानी घोल भी पिलाना चाहती तो वह भी मामी से पूंछना पड़ता और वह भी दिन में सिर्फ एक बार। महिला की बेटी पूर्ण-रुपेण अपने माँ के दूध के भरोसे थी। खैर, धीरे-धीरे बच्ची बड़ी होने लगी। बड़ी तेज एवं चंचल बच्ची, सबसे आगे और सब में आगे। पढाई में, खेल-कूद में, बुनाई में सिलाई में, कढा़ई में सर्वगुण सम्पन्न। इस सर्वगुण सम्पन बालिका से उसकी मामी की बहुएं इतनीे ईष्र्या करने लगी कि इसकी पढ़ाई छुडा दी गयी और कारण दिया गया कि ज्यादा पढ़ लेने से शादी में दहेज ज्यादा लगेगा और उसकी व्यवस्था करने वाला कोई था नहीं। कुल मिलाकर कहानी फिर उसी मोड़ पर पहुंच जाती है जहां से शुरू हुई थी लेकिन अब किरदार बदले हुए थे और उस बच्ची की संरक्षक एक माँ थी भले ही वह गरीब असहाय थी। यह महिला अपनी बेटी की पढ़ाई छुड़वाने से बड़ी खिन्न थी और बेटी इसलिए बहुत परेशान एवं खिन्न थी कि उसे ही क्यों रोका गया ? एक दिन यह महिला रात में सोने का प्रयास कर रही थी, उसको नींद नही आ रही थी। उसने सोचा कि जितना काम हम इस घर का करते हैं यदि उसका आधा काम कहीं और कर दिया जाय तो पैसा भी मिलेगा और खाना भी। यहां सिर्फ उपहास् असम्मान के साथ खाना और दुनिया भर के ताने एवं एहसास ऊपर से। यहीं से उसकी प्रेरणा शुरू होती है और कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है और अब यह महिला विकल्प सोचने एवं खोजने लग गयी। समय ने सहयोग दिया। गाँव का ही एक शहर वासी परिवार गर्मी की छुट्टियों में गाँव आया था। उसके घर पर शादी थी। इसके बारे में सभी जानते थे। उस व्यक्ति की पत्नी बड़ी भद्र एवं दयालु महिला थी और इससे मिलकर अन्य महिलाओं की तरह इसका हाल-चाल जानना चाहा लेकिन यह कुछ बता नहीं पायी। सिर्फ रोती रही। यही बात उस दयालु स्त्री को बेचैन कर दिया। शादी के बाद उसने यह सोचकर इसको बहाने से बुलाया कि इस असहाय की कुछ मद्द कर दी जाय जिसके लिए उसने अपने पति से पूर्व में ही अनुमति ले रखी थी। जब महिला उस दयालु स्त्री से मिलने पहुंची तो उसकी मद्द लेने से इन्कार करते हुए कहा कि ”भाभी, अगर आप हमारी मद्द करना चाहती हैं तो हमें दिल्ली में कहीं चैका-बरतन आदि का काम दिला दो, हम अब स्थायी निदान चाहते हैं, हम अपने बेटी के भविष्य को लेकर बहुत चिन्तित हैं” उस दयालु स्त्री ने अपने पति से पूंछकर बताने का आश्वासन दिया और पति ने थोड़ी न-नुकुर करके साथ ले चलने का आश्वासन दे दिया। इस महिला ने अपने एवं अपनी बच्ची के किराये की व्यवस्था पायल बेंच कर की। बच्ची भी बहुत खुश थी क्योंकि अब उसे पढ़ने के लिए मिलेगा वह भी दिल्ली में। दिल्ली पहुंचते ही इसके भाग्य ने साथ दिया। इसको बड़े ही सज्जन एवं शिक्षित परिवार में नौकरानी का काम मिल गया। रहने के लिए सर्वेन्ट क्र्वाटर, वह भी सभी सुविधाओं जैसे, बिजली, पानी, पंखा, शौचालय आदि से युक्त। यह इतनी मेहनती थी कि चार लोगों का काम अकेले करती थी और वह भी बिना कहे। इस तरह इसने 15 दिन में अपनी मेहनत एवं ईमानदारी से सब का दिल जीत लिया। एक दिन मालिश करवाते समय घर की मुख्य मालकिन ने इसके बेटी की पढ़ायी के बारे में बात की और इस बात पर सहमत हो गयी कि बेटी का एडमिशन, करवा देंगे, किताब एवं यूनीफार्म खरीद देंगे और इस तरह खर्च की गयी धनराशि उसके वेतन से हर महीने काट ली जायेगी और यह महिला तुरन्त तैयार हो गयी। इसकी बेटी का एडमीशन हो जाता है, रहने की व्यवस्था हो जाती है, सम्मान सहित भोजन मिलने लगता है और माँ-बेटी दोनों प्रसन्न । यही नहीं उस परिवार मे इसकी ऊपर से आय भी हो जाती थी क्योंकि उस परिवार में जो भी रिश्तेदार आता था, इसकी सेवा से प्रसन्न होकर टिप के रूप में कुछ न कुछ रूपये जरूर दे देता था और इस तरह इसके पास धनराशि भी जुड़ने लगी और इसने सबसे पहले अपने लिए एक पायल खरीदा। समय बीतता गया। जिन्दगी व्यवस्थित हो गयी थी। इसकी बालिका बहुत तेज थी और सबके सहयोग से निरन्तर पढ़ाई करते हुए दिल्ली के एक प्रसिद्ध काॅलेज में दाखिला हो जाता है और वहीं से कैम्पस प्लेसमेन्ट के जरिए एक अच्छी नौकरी मिल जाती है। बाद में बेटी को U.S.A में नौकरी मिल जाती है और उसका जीवन स्तर बहुत अच्छा हो जाता है। वह हर महीने माँ को भी पैसे भेजती है और इस तरह माँ-बेटी एक अच्छी जिन्दगी व्यतीत करने लगती हैं। इसी बीच उसकी मुलाकात एक भारतीय लड़के से होती है जो उससे शादी का प्रस्ताव रखता है। इसने लड़के को अपनी सारी पारिवारिक पृष्ठ भूमि के बारे में स्पष्ट रूप से बताते हुए शादी की केवल एक शर्त रखती है कि उसकी आय की एक निश्चित धनराशि उसकी माँ को लगातार जाती रहेगी और उस पर कोई वाद-विवाद नहीं होना चाहिए। लड़के के परिवार ने एवं लड़के ने इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया और उसकी शादी हो जाती है इस तरह एक बेटी संघर्ष करते हुए जीवन-लक्ष्य के निर्धारित शिखर को प्राप्त करती है और गरीबी की पराकाष्ठा से निकलकर सम्मानित जीवन व्यतीत करने लगती है।

अहंकार

नदी के किनारे एक विशाल शमी का वृक्ष था, एक बेंत का पेड़ भी लगा था, जिसकी लताएं फैली हुई थीं । एक दिन नदी में भयंकर बाढ़ आई । प्रवाह प्रचंड था। शमी सोचता था कि मेरी जडे़ं गहरी हैं। मेरा क्या नुकसान होगा। इसी बीच लहरों ने जड़ों के नीचे की मिट्टी काटनी शुरू कर दी। हर लहर मिट्टी खिसका देती । देखते-देखते वृक्ष उखड़ गया। देखने वालों ने अगले दिन पाया कि वृक्ष उखड़ा पड़ा है। उसकी जड़ों ने हाथ खड़े कर दिए और वह अब शांत हो चुकी नदी के किनारे असहाय पड़ा है। बेंत का गुल्म इसी बीच उसी बाढ़ से जूझा। जब पानी का प्रवाह तेज हुआ तो वह झुका और मिट्टी की सतह पर लेट गया। गरजता पानी उस पर होकर गुजर गया। बाढ़ उतरने पर उसने पाया कि वह तो सुरक्षित है, पर उसका पड़ोसी उखड़ा पड़ा है। देखने वाले चर्चा कर रहे थे कि अहंकारी, अक्खड़ और अदूरदर्शी जो समय की गति का नहीं पहचान पाते, इसी तरह समय के प्रवाह से उखड़ जाते हैं। जो विनम्र हैं, झुकते हैं, अनावश्यक टकराते नहीं, तालमेल बिठा लेते हैं, वे अपनी सज्जनता का सुफल पाकर रहते हैं।

महाभारत का लेखन

ऐसी पौराणिक कथा है कि महाभारत जैसे विराट ग्रंथ का लेखन कार्य महर्षि व्यास ने गणेश जी को सौंपा। गणेश जी ने इस भगीरथ कार्य को स्वीकार किया, पर वे लेखन में बहुत तेज थे। शेखी में ही उन्होंने शर्त रखी कि महर्षि व्यास सत्त बोलते रहेंगे, रूकेंगे नही - वरना वे लेखन कार्य बीच में ही छोड़ देंगे। महर्षि व्यास तो ऋषि शिरोमणि थे! उन्होंने गणेश जी का प्रस्ताव मान्य किया, पर सामने शर्त रखी कि - गणेश जी समझे बगैर एक भी श्लोक लिखेंगे नही! अर्थात बीच-बीच में नयी रचना सोचने का समय महर्षि को सहज ही मिल गया! वाह! एक बुद्धि की देवता, तो एक बुद्धि के विजेता।